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चौदहवाँ कषाय पद - आठ कर्म प्रकृतियों का चय आदि
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२. अनाभोग निर्वर्तित ३. उपशान्त और ४. अनुपशान्त। इसी प्रकार नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक में चार प्रकार के क्रोध का कथन कर देना चाहिये। क्रोध के समान ही मान के, माया के और लोभ के आभोग निर्वर्तित आदि चार-चार भेद होते हैं तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक में मान, माया और लोभ के भी ये ही चार-चार भेद दण्डक समझने चाहिये।
विवेचन - क्रोध के चार प्रकार हैं - १. आभोग निर्वर्तित क्रोध - क्रोध का कारण और क्रोध का फल जानकर क्रोध करना। २. अनाभोग निर्वर्तित क्रोध - गुण दोष जाने बिना परवश होकर क्रोध करना। ३. उपशांत क्रोध - जो क्रोध अन्दर हो पर ऊपर से शांत दिखाई दे, उदय में नहीं आया हुआ है। ४. अनुपशान्त क्रोध - उदय में आया हुआ क्रोध। इसी तरह मान, माया और लोभ के स्थान (कारण) और प्रकार कह देना चाहिए।
उपशांत क्रोध आदि का भेद जीवों में उस समय पाता है कि जब वह क्रोध कषाय में नहीं वर्तता हो किन्तु मान आदि अन्य कषायों में वर्तता हो। अथवा विशिष्ट उदय के अभाव में भी उपशांत क्रोध कह सकते हैं। ये भेद सकषायी जीवों के होने से ११ वें गुणस्थान वालों के नहीं समझना चाहिये। उनमें तो पूर्ण रूप से कषाय उपशांत होते हैं।
अब फल के भेद से त्रिकालवर्ती जीवों के भेद बतलाये जाते हैं - जीवा णं भंते! कइहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु?
गोयमा! चउहि ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणिंसु, तंजहा-कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं।
कठिन शब्दार्थ - चिणिंसु - चय किया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीवों ने कितने स्थानों (कारणों) से आठ कर्म प्रकृतियों का चय किया हैं (यह भूतकाल सम्बन्धी प्रश्न है)?
उत्तर - हे गौतम! चार कारणों से जीवों ने आठ कर्म प्रकृतियों का चय किया है, वे इस प्रकार हैं-१. क्रोध से २. मान से ३. माया से और ४. लोभ से। इसी प्रकार की प्ररूपणा नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक के विषय में समझ लेनी चाहिये।
___ आठ कर्म प्रकृतियों का चय आदि .. जीवा णं भंते! कइहिं ठाणेहिं अट्ठ कम्मपगडीओ चिणंति?
गोयमा! चउहि ठाणेहिं, तंजहा - कोहेणं, माणेणं, मायाए, लोभेणं। एवं णेरइया जाव वेमाणिया।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! जीव कितने कारणों से आठ कर्म प्रकृतियों का चय करते हैं ? (यह वर्तमान काल सम्बन्धी प्रश्न है)
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