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________________ प्रज्ञापना सूत्र अब सम्यग्दर्शन आदि गुण के घाती होने से कषायों के भेद कहे जाते हैं - कषायों के भेद-प्रभेद कविहे णं भंते! कोहे पण्णत्ते? गोयमा! चउविहे कोहे पण्णत्ते। तंजहा - अणंताणुबंधी कोहे, अपच्चक्खाणे कोहे, पच्चक्खाणावरणे कोहे, संजलणे कोहे। एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवं माणेणं मायाए लोभेणं, एए वि चत्तारि दंडगा॥ ४२२॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है? उत्तर - हे गौतम! क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - १. अनन्तानुबन्धी क्रोध २. अप्रत्याख्यान क्रोध ३. प्रत्याख्यानावरण क्रोध और ४. संज्वलन क्रोध। इसी प्रकार नैरयिक जीवों से लेकर वैमानिक देवों तक चौवीस ही दण्डकवर्ती जीवों में क्रोध के इन चारों प्रकारों की प्ररूपणा समझनी चाहिए। इसी प्रकार मान की अपेक्षा से, माया की अपेक्षा से और लोभ की अपेक्षा से, इन चार-चार भेदों का तथा नैरयिकों से लेकर वैमानिक देवों तक में इनके पाए जाने का कथन कर देना चाहिये। ये भी चार दण्डक होते हैं। अर्थात् प्रत्येक के ऊपर चौबीस-चौबीस दण्डक होने से इन के चार विभाग हो जाते हैं। विवेचन - क्रोध चार प्रकार का होता है - अनन्तानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यानी क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रोध। अनन्तानुबन्धी क्रोध सम्यक्त्व का घात करता है। अप्रत्याख्यानी क्रोध देश विरति का घात करता है। प्रत्याख्यानावरण क्रोध सर्व विरति का घात करता है। संज्वलन क्रोध यथाख्यात चारित्र का घात करता है। क्रोध की तरह ही मान, माया और लोभ चार-चार प्रकार का होता है । इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ इन प्रत्येक पर चौबीस चौबीस दण्डक कह देने चाहिए। शास्त्रकार ने यहाँ चौबीस दण्डक को एक दण्डक गिना है। अब क्रोध आदि की उत्पत्ति के भेद से और अवस्था के भेद से भेद बताते हैं - कइविहे णं भंते! कोहे पण्णते? गोयमा! चउविहे कोहे पण्णत्ते। तंजहा - आभोग णिव्वत्तिए, अणाभोग णिव्वत्तिए, उवसंते, अणुवसंते। एवं णेरइयाणं जाव वेमाणियाणं। एवं माणेण वि, मायाए वि, लोभेण वि चत्तारि दंडगा॥४२३॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्रोध कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम! क्रोध चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है - १. आभोग निर्वर्तित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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