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प्रज्ञापना सूत्र
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किल्विषी को छोड़ कर) मनुष्य भव को प्राप्त कर चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सकते हैं। शेष जीवों में चक्रवर्ती पद प्राप्त करने की योग्यता नहीं है।
७. बलदेव द्वार एवं बलदेवत्तं पि, णवरं सक्करप्पभा पुढविणेरइए वि लभेजा।
भावार्थ - इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नैरयिक भी बलदेवत्व प्राप्त कर सकता है।
विवेचन - रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी के नैरयिक तथा चारों प्रकार के देव अपने अपने भवों से उद्वर्तन कर मनुष्य भव में बलदेव पद प्राप्त कर सकते हैं।
.. ८. वासुदेव द्वार एवं वासुदेवत्तं दोहितो पुढवीहितो वेमाणिएहितो य अणुत्तरोववाइय वजेहिंतो, सेसेसु णो इणढे समढे।
भावार्थ - इसी प्रकार दो पृथ्वियों-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा पृथ्वी से तथा अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़ कर शेष वैमानिकों से वासुदेव पद प्राप्त हो सकता है, शेष जीवों में यह अर्थ समर्थ नहीं अर्थात् ऐसी योग्यता नहीं होती है।
विवेचन - पहली दूसरी नारकी के नैरयिक, बारह देवलोकों, नौ लोकान्तिक और नौ ग्रैवेयक के देव अपने भव से उद्वर्तन कर मनुष्य भव में वासुदेव हो सकते हैं, शेष गतियों से आए हुए जीव वासुदेव नहीं हो सकते।
यहाँ पर वासुदेवों के लिए अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़कर शेष वैमानिक देवों से आये हुए जीवों को वासुदेव पद प्राप्त होना बतलाया गया है इसका कारण हस्तलिखित प्रतियों (टब्बों) में इस प्रकार बताया है कि सभी वासुदेव पूर्व भव में निदान कृत होने से यहाँ से काल करके नियमा नरक गति में ही जाते हैं। अतः इनके लिए अनुत्तर विमान देवों की आगति नहीं बताई है।
९. मांडलिक द्वार मंडलियत्तं अहेसत्तमा तेउ वाउ वजेहिंतो।
भावार्थ - माण्डलिकपद, अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक भवों को छोड़कर शेष सभी भवों से अनन्तर उद्वर्तन करके मनुष्य भव में आए हुए जीव प्राप्त कर सकते हैं।
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