SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 330
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीसवां अन्तक्रिया पद - चक्रवर्ती द्वार ३१७ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक अपने भव से उद्वर्तन करके क्या चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सकता है ? उत्तर - हे गौतम! इनमें से कोई नैरयिक चक्रवर्ती पद प्राप्त करता है, कोई प्राप्त नहीं करता है। प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि कोई रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक चक्रवर्ती पद प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं करता है? उत्तर - हे गौतम! जैसे रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक को तीर्थंकर पद प्राप्त होने, न होने के कारणों का कथन किया गया है, उसी प्रकार उसके चक्रवर्ती पद प्राप्त होने न होने का कथन समझना चाहिए। सक्करप्पभापुढवि णेरइए णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेजा? गोयमा! णो इणढे समढे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! शर्कराप्रभापृथ्वी का नैरयिक अपने भव से उद्वर्तन करके सीधा चक्रवर्तीपद पा सकता है ? .. उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। एवं जाव अहेसत्तमा पुढवि णेरइए। . भावार्थ - प्रश्न - इसी प्रकार वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से लेकर अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिकों तक के विषय में समझ लेना चाहिए। तिरिय मणुएहितो पुच्छा? गोयमा! णो इणढे समढे। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! तिर्यंच योनिक और मनुष्यों के विषय में पृच्छा है कि ये तिर्यंचयोनिकों और मनुष्यों से निकल कर सीधे क्या चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सकते हैं ? उत्तर.- हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है। भवणवइ वाणमंतर जोइसिय वेमाणिएहितो पुच्छा? गोयमा! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! इसी प्रकार भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव के सम्बन्ध में प्रश्न है कि क्या वे अपने-अपने भवों से च्यवन कर सीधे चक्रवर्ती पद पा सकते हैं? उत्तर - हे गौतम! इनमें से कोई चक्रवर्ती पद प्राप्त कर सकता है और कोई प्राप्त नहीं कर सकता है। विवेचन - प्रस्तुत चक्रवर्ती द्वार में चक्रवर्ती पद किसको प्राप्त होता है और किसको नहीं, इसका कथन किया गया है। पहली रत्नप्रभा पृथ्वी का नैरयिक और चारों प्रकार के देव (परमाधामी और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy