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प्रज्ञापना सूत्र
- गोयमा! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा, एवं जहा रयणप्पभा पुढवि णेरइए।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव, अपने भव से च्यवन करके सीधा तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है?
उत्तर - हे गौतम! उनमें से कोई सौधर्मकल्पक देव तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है और कोई प्राप्त नहीं कर सकता है, इत्यादि सभी बातें रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के समान जाननी चाहिए। . __ एवं जाव सव्वट्ठसिद्धगदेवे॥५६५॥
भावार्थ - इसी प्रकार ईशानकल्प के देव से लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तक सभी वैमानिक देवों के लिए समझना चाहिए।
विवेचन - प्रस्तुत पांचवें – 'तीर्थंकर द्वार' में कौन से जीव तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकते हैं ? इसका वर्णन किया गया है। नैरयिकों और वैमानिक देवों से मर कर सीधा मनुष्य होने वाला जीव ही तीर्थंकर पद प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं। पहली, दूसरी, तीसरी नारकी के जिस नैरयिक ने पूर्व में तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया हुआ है और बांधा हुआ कर्म उदय में आता है वही नैरयिक तीर्थंकर पद प्राप्त करता है। चौथी नारकी से निकला हुआ नैरयिक मनुष्य भव में अंतक्रिया तो कर सकता है किन्तु तीर्थंकर नहीं बन सकता। इसी प्रकार क्रमश: पांचवीं, छठी और सातवीं नारकी से निकल कर जीव क्रमशः सर्वविरति, देशविरति और सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। रत्नप्रभा आदि प्रथम तीन नारकी के नैरयिकों की तरह वैमानिक देवों के विषय में भी समझना चाहिए। भवनपति देव, पृथ्वी, पानी, वनस्पति के जीव, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, मनुष्य, वाणव्यंतर देव और ज्योतिषी देव सीधे मनुष्य भव में आकर अन्तक्रिया कर सकते हैं। किन्तु तीर्थंकर पद प्राप्त नहीं कर सकते हैं। तेजस्कायिक और वायुकायिक जीव मर कर मनुष्य तो नहीं बनते हैं किन्तु तिर्यंच पंचेन्द्रिय के भव में धर्म श्रवण कर सकते हैं। तीन विकलेन्द्रिय के जीव मनुष्य भव प्राप्त कर मनःपर्यवज्ञान तक का उपार्जन कर सकते हैं।
६. चक्रवर्ती द्वार . रयणप्पभा पुढवि णेरइए णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेजा? गोयमा! अत्थेगइए लभेजा, अत्थेगइए णो लभेजा। से केणद्वेणं भंते! एवं वुच्चइ०? गोयमा! जहा रयणप्पभा पुढवि णेरइयस्स तित्थगरत्तं।
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