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बीसवां अन्तक्रिया पद - तीर्थंकर द्वार
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एवं णिरंतरं जाव आउकाइए।
भावार्थ - इसी प्रकार लगातार अप्कायिक तक अपने-अपने भव से उद्वर्तन कर सीधे तीर्थंकरत्व प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया कर सकते हैं।
तेउकाइए णं भंते! तेउक्काइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेजा? गोयमा! णो इणढे समढे, केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! तेजस्कायिक जीव तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर बिना अन्तर के मनुष्य भव में उत्पन्न हो कर क्या तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है ?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह केवलिप्ररूपित धर्म श्रवण को प्राप्त कर सकता है।
एवं वाउकाइए वि। भावार्थ - इसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए। वणस्सइकाइए णं पुच्छा? गोयमा! णो इणद्वे समटे, अंतकिरियं पुण करेजा।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! वनस्पतिकायिक जीव के विषय में पृच्छा है कि क्या वह वनस्पतिकायिकों में से निकल कर तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है?
उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है। बेइंदिय तेइंदिय चउरिदिए णं पुच्छा? गोयमा! णो इणढे समढे, मणपजवणाणं उप्पाडेजा।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय चउरिन्द्रिय के विषय में भी यही प्रश्न है कि क्या ये अपने-अपने भवों में से उद्वृत्त हो कर सीधे तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकते हैं?
उत्तर-हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु ये मन:पर्यवज्ञान तक का उपार्जन कर सकते हैं। पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिय मणूस वाणमंतर जोइसिए णं पुच्छा?
गोयमा! णो इणढे समढे, अंतकिरियं पुण करेजा। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अब पृच्छा है कि क्या पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिषी देव अपने-अपने भवों में से उद्वर्तन करके सीधे तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकते हैं?
उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु ये अन्तक्रिया कर सकते हैं। सोहम्मगदेवे णं भंते! अणंतरं चयं चइत्ता तित्थगरत्तं लभेजा?
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