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________________ .३१२ प्रज्ञापना सूत्र CUỘC Ô TÔ TÔ Ô TÔ HỘ CHU भंते! एवं वच्चइ - ' अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेजा' ? गोयमा ! जस्स णं रयणप्पभा पुढवी णेरइयस्स तित्थगर णाम गोयाइं कम्माई बद्धाइं पुट्ठाइं णिधत्ताई कडाई पट्टवियाई णिविट्ठाई अभिणिविट्ठाई अभिसमण्णागयाई उदिण्णाई, णो उवसंताइं हवंति, से णं रयणप्पभा पुढवी णेरइए रयणप्पभा पुढवी णेरइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा, जस्स णं रयणप्पभा पुढवी णेरइयस्स तित्थगर णाम गोयाइं कम्माई णो बद्धाइं जाव णो उदिण्णाई, उवसंताइं हवंति, से णं रयणप्पभा पुढवी णेरइए रयणप्पभा पुढवी णेरइएहिंतो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं णो लभेजा । से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ - ' अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा' । कठिन शब्दार्थ - बद्धाई - बद्ध- आत्मा के साथ कर्मों का साधारण संयोग होना, जैसे सूइयों के ढेर को सूत के धागे से बांधना, पुट्ठाई स्पृष्ट- आत्मप्रदेशों और कर्मों में परस्पर सघनता उत्पन्न होना जैसे उन सूइयों के ढेर को अग्नि से तपाकर घन (हथोड़ा) से कूट दिया जाता है तब उनमें परस्पर जो सघनता उत्पन्न हो जाती है, उस प्रकार से होना स्पृष्ट है, णिधत्ताइं निधत्त - उद्वर्त्तनाकरण और अपवर्त्तनाकरण के सिवाय शेष करण जिसमें लागू न हो सकें, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना, कडाइं - कृत-कर्मों को निकाचित कर लेना अर्थात् समस्त कर्मों के लागू होने के योग्य न हो, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना, पट्ठवियाई प्रस्थापित - नाम कर्म की विभिन्न प्रकृतियों (मनुष्य गति, पंचेन्द्रिय जाति, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय एवं यश कीर्ति नामकर्म आदि) के उदय के साथ व्यवस्थापित होना, णिविट्ठाई - निविष्ट -बद्ध कर्मों का तीव्र अनुभाव जनक के रूप में स्थित होना, अभिणिविट्ठाई - अभिनिविष्ट - बद्ध कर्मों का जब विशिष्ट, विशिष्टतर विलक्षण अध्यवसायभाव के कारण अति तीव्र अनुभाव जनक के रूप में व्यवस्थित होना, अभिसमण्णागयाइं - अभिसमन्वागतकर्म का उदय के अभिमुख होना, उदिण्णाई - उदीर्ण कर्मों का उदय में आना, उदय प्राप्त होना अर्थात् कर्म जब अपना फल देने लगता है, तब उदय प्राप्त या उदीर्ण कहलाता है, णो उवसंताई - कर्म का उपशान्त न होना । उपशान्त न होने के यहाँ पर दो अर्थ हैं १. कर्म बन्ध का सर्वथा अभाव को प्राप्त न होना २. अथवा कर्मबन्ध हो जाने पर भी निकाचित या उदय आदि अवस्था के उद्रेक से रहित न होना । उपरोक्त सभी शब्द कर्म सिद्धान्त के पारिभाषिक शब्द हैं। - - भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! क्या रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों से निकल कर सीधा तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है ? Jain Education International - For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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