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बीसवां अन्तक्रिया पद - तीर्थंकर द्वार
भावार्थ - इसी प्रकार असुरकुमारों में यावत् स्तनितकुमारों में उत्पत्ति के विषय में पंचेन्द्रिय तिर्यंच से निरन्तर उद्वृत्त होकर उत्पन्न हुए नैरयिक की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए । एगिंदिय विगलिंदिएसु जहा पुढवीकाइए।
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भावार्थ - एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिकों की उत्पत्ति की वक्तव्यता पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति के समान समझ लेनी चाहिए।
पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिएसु मणुस्सेसु य जहा णेरइए ।
भावार्थ - प्रश्न- हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिक जीवों और मनुष्यों में जैसे नैरयिक के उत्पाद की प्ररूपणा की गई वैसे ही पंचेन्द्रिय तिर्यंच की प्ररूपणा करनी चाहिए।
वाणमंतर जोइसिय वेमाणिएसु जहा णेरइएस उववज्जेज्जा पुच्छा भणिया ।
भावार्थ - वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों में पंचेन्द्रिय तिर्यंच के उत्पन्न होने आदि की पृच्छा का कथन उसी प्रकार किया गया है, जैसे नैरयिकों में उत्पन्न होने का कथन किया गया है। एवं मस्से वि।
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. भावार्थ - इसी प्रकार मनुष्य का उत्पाद भी चौवीस दण्डकों में यथायोग्य कहना चाहिए।
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विवेचन - तिर्यंच पंचेन्द्रिय एवं मनुष्य की पृच्छा में " शीलव्रत आदि रूप श्रावक पने" के बाद अवधिज्ञान की पृच्छा की गयी है इसका आशय यह नहीं समझना चाहिए कि " व्रत धारण के बाद ही अवधिज्ञान होता है।" किन्तु व्रत धारण के पहले भी हो सकता है। समकित एवं देशविरति एक साथ ही हो सकते हैं परन्तु विकास का क्रम अधिकतर इस प्रकार से होता है कभी व्युत्क्रम से भी हो सकता है जैसे मनुष्य के वर्णन में अवधिज्ञान होने के बाद संयम लेने का उल्लेख है किन्तु श्रावकपन एवं अवधिज्ञान उत्पन्न हुए बिना भी संयम लेने का आगमों से स्पष्ट होता है । इसी प्रकार मन: पर्याय ज्ञान और केवलज्ञान के सम्बन्ध में भी समझ लेना चाहिए।
वाणमंतर जोइसिय वेमाणिए जहा असुरकुमारे ॥ ५६४ ॥
भावार्थ - वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक के उत्पाद का कथन असुरकुमार के उत्पाद के समान ही समझना चाहिए ।
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५. तीर्थंकर द्वार
रयणप्पभा पुढवी णेरइए णं भंते! रयणप्पभा पुढवी रइएहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा ?
गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा ।
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