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चोद्दसमं कसायपयं
चौदहवाँ कषाय पद उक्खेओ (उत्क्षेप उत्थानिका - अवतरणिका)- इस चौदहवें पद का नाम "कषाय पद" है। इसमें दो शब्द है 'कष' और 'आय'। 'कष' धातु से 'कष' शब्द बना है। जिसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है-"कष्यन्ते, पीड्यन्ते प्राणिनः अस्मिन् इति कषः संसारः।" आय शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है - 'अय गतौ' धातु से आय शब्द बना है - "आ समन्तात अयन्ते गच्छन्ति असुभन्तः प्राणिनः इति आय" अर्थात् जिसमें प्राणी आते हैं उसे आय कहते हैं। इस तरह से कष और आय ये दोनों शब्द मिलकर "कषाय" शब्द बना है-जिसका अर्थ होता है प्राणी जहाँ आकर अपने किये हुए कर्मों का सुख दुःख रूप फल भोगते हैं उसे कषाय कहते हैं। संसार परिभ्रमण का मुख्य कारण कषाय है। कषाय से सर्वथा छुटकारा पा लेना इसी का नाम मोक्ष है। प्राणी का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है।
कषाय के सम्बन्ध में दशवैकालिक सूत्र में भी फरमाया है - कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्डमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स॥४०॥ (अ०८)
अर्थात् - क्रोध और मान ये दोनों क्षमा और विनय से शान्त न किये हों और माया, लोभ ये दोनों, सरलता और सन्तोष रूपी सद्गुणों को धारण न करने से बढ़ रहे हों तो आत्मा को मलिन बनाने वाले, ये चारों कषाय पुनर्जन्म रूपी वृक्ष की जड़ों को सींचते हैं अर्थात् ये चारों कषाय जन्म मरण रूपी संसार को बढाते हैं तथा शुद्ध स्वभाव युक्त आत्मा को क्रोध आदि विकारों से मलिन करने वाले हैं तथा अष्टविध कर्मों के चय, उपचय, बन्ध, उदीरणा, वेदना आदि के कारणभूत हैं। जीव के आत्मप्रदेशों के साथ सम्बन्ध होने से इनका विचार करना अति आवश्यक है। इसी कारण कषाय पद की रचना हुई है।
तेरहवें पद में सामान्य रूप से गति आदि रूप जीव के परिणाम कहे गये हैं। सामान्य विशेष की आश्रित रहा हुआ है इसलिए वे ही परिणाम किसी स्थान पर विशेष रूप से प्रतिपादित किये जाते हैं। एकेन्द्रिय जीवों में भी कषाय होने से और 'सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान् पुद्गलानादत्ते' (तत्त्वार्थ सूत्र अ. ९ सूत्र २) कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। तत्त्वार्थ सूत्र के इस वचन से कषाय बन्ध का प्रधान कारण होने से इस चौदहवें पद में कषाय परिणाम का विशेष रूप से प्रतिपादन किया गया है। जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है -
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