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________________ २९० भावार्थ - प्रश्न हे भगवन्! अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव लगातार कितने काल तक - प्रज्ञापना सूत्र अभवसिद्धिक पर्याय से युक्त रहता है ? उत्तर - हे गौतम! अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव अनादि - अपर्यवसित है। णोभवसिद्धिए-णोअभवसिद्धिए णं पुच्छा ? गोयमा! साइए अपज्जवसिए ॥ दारं २० ॥ ५५२ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव कितने काल तक लगातार नोभवसिद्धिक-नोअवसिद्धिक-अवस्था में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव सादि-अपर्यवसित है। ॥ बीसवां द्वार ॥ २० ॥ विवेचन - भव्य जीव अनादि सान्त हैं क्योंकि भव्यत्व पारिणामिक भाव है इसलिए वह अनादि है किन्तु मोक्ष में चले जाने पर उसका सद्भाव नहीं रहता इसलिए सान्त है । अभव्य अनादि अनंत है क्योंकि अभव्यत्व पारिणामिक भाव होने से अनादि है और अभव्यत्व का कभी नाश नहीं होता इसलिए अनन्त है। नो भव्य - नो अभव्य सिद्ध है और वे सादि अनन्त हैं । यहाँ पर भवसिद्धिक जीवों में एक ही भङ्ग 'अनादि सपर्यवसित' बताया गया है अतः ग्रन्थों में. जो 'जाति भव्य' और 'राशि भव्य' बताये गये हैं। वे आगम से उचित नहीं हैं। २१. अस्तिकाय द्वार धम्मत्थिकाए णं पुच्छा ? गोयमा ! सव्वद्धं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितने काल तक लगातार धर्मास्तिकाय रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! वह सर्वकाल रहता है । Jain Education International एवं जाव अद्धासमए ॥ दारं २१ ॥ ५५३ ॥ भावार्थ - इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और अद्धासमय (कालद्रव्य) के अवस्थानकाल के लिये भी समझना चाहिए। ॥ इक्कीसवां द्वार ॥ २१ ॥ विवेचन - धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य अनादि अनन्त हैं । ये सदैव अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं । अद्धासमय (काल) भी प्रवाह की अपेक्षा सर्वकाल भावी होने से मूल पाठ में कहा है 'एवं जाव अद्धा समए' - इसी प्रकारं यावत् अद्धा समय तक समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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