________________
अठारहवाँ कायस्थिति पद - भवसिद्धिक द्वार
२८९
विवेचन - जब कोई जीव असंज्ञी से निकल कर संज्ञी में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त आयुष्य भोग कर पुन: असंज्ञी में उत्पन्न हो जाता है तब जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति होती है।
असण्णी णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असंज्ञी जीव असंज्ञी पर्याय में कितने काल तक रहता है?
उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक असंज्ञी जीव असंज्ञीपर्याय में निरन्तर रहता है।
विवेचन - जब कोई जीव संज्ञी से निकल कर असंज्ञी में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रह कर पुनः संज्ञी में उत्पन्न हो जाता है तब जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति होती है और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल कहा गया है क्योंकि असंज्ञी कहने से वनस्पतिकाय का भी ग्रहण होता है।
णोसण्णी णोअसण्णी णं पुच्छा? गोयमा! साइए अपज्जवसिए॥ दारं १९॥५५१॥
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव कितने काल तक नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी रहता है?
उत्तर - हे गौतम! नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीव सादि-अपर्यवसित है। ॥ उन्नीसवाँ द्वार॥ १९॥
विवेचन - नो संज्ञी-नोअसंज्ञी जीव प्रमुख रूप से तो सिद्ध भगवान् ही होते हैं। संसारी जीवों में तेरहवें एवं चौदहवें गुणस्थान वाले केवलज्ञानी भी नो संज्ञी-नो असंज्ञी कहे जाते हैं। इनकी स्थिति तो थोड़ी ही होती है। यहाँ पर सिद्धों की अपेक्षा से ही कायस्थिति बतलाई गयी है।
२० भवसिद्धिक द्वार भवसिद्धिए णं पुच्छा? गोयमा! अणाइए सपजवसिए।
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! भवसिद्धिक (भव्य) जीव निरन्तर कितने काल तक भवसिद्धिक पर्याय युक्त रहता है?
उत्तर - हे गौतम! भवसिद्धिक (भव्य) जीव अनादि-सपर्यवसित है। अभवसिद्धिए णं पुच्छा? गोयमा! अणाइए अपजवसिए।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org