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________________ 0000 अठारहवाँ कायस्थिति पद - चरम द्वार २२. चरम द्वार चरिमे णं पुच्छा ? गोयमा! अणाइए सपज्जवसिए । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! चरम जीव कितने काल तक चरम पर्याय वाला रहता है ? उत्तर - हे गौतम! चरम जीव अनादि-सपर्यवसित होता है। २९१ TÖÖVŐKÖTŐK ÖNÖKÖKÖTŐK 000 अचरिमे णं पुच्छा ? गोयमा! अचरिमे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, साइए वा Jain Education International अपज्जवसिए ॥ दारं २२ ॥ ५५४॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अचरमजीव कितने काल तक अचरमपर्याय - युक्त रहता है ? उत्तर - हे गौतम! अचरम दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार है- १. अनादि अपर्यवसित और २. सादि - अपर्यवसित ।, विवेचन - जिसका भव चरम अर्थात् अन्तिम होगा वह 'चरम' कहलाता है। यह अभेद से चरम - भव्य कहलाता है। इससे विपरीत जो चरम नहीं है वह अचरम कहलाता है । अभव्य जीव अचरम होते हैं क्योंकि उनका कभी भी चरम भव नहीं होगा । सिद्ध भी अचरम हैं क्योंकि उनमें भी चरमपना (चरमत्व) नहीं होता । अचरम दो प्रकार के कहे गये हैं- अनादि अनन्त और सादि अनन्त इनमें से अनादि अनन्त अभव्य हैं और सादि अनन्त सिद्ध हैं। अभव्य जीव कभी भी संसार का अन्त करने वाले नहीं होने से एवं सिद्ध भगवान् सिद्ध अवस्था का कभी भी अन्त करने वाले नहीं होने से अभव्य एवं सिद्ध इन दोनों को अचरम बताया गया है। ॥ पण्णवणाए भगवइए अट्ठारसमं कायद्विपयं समत्तं ॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती सूत्र का अठारहवाँ कायस्थिति पद समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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