SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 300
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - पर्याप्त द्वार उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपम - पृथक्त्व तक निरन्तर पर्याप्तक- अवस्था में रहता है। अपज्जत्तए णं पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं । भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! अपर्याप्तक जीव, अपर्याप्तक- अवस्था में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? उत्तर - हे गौतम! अपर्याप्तक जीव, जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त्त तक अपर्याप्तकअवस्था में रहता है। विवेचन - यहाँ पर अपर्याप्तक की कायस्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त की ही बतलाई गयी है। वह करण अपर्याप्तक की अपेक्षा से समझनी चाहिए। गमा शतक (भगवती सूत्र शतक २४) में वनस्पति में पांचवें गमे की अपेक्षा स्वकाय में ही रहते हुए अनन्त भव करके अनन्त काल तक रह सकना बताया है अतः लब्धि अपर्याप्तक की यहाँ विवक्षा नहीं करके करण अपर्याप्तक की यहाँ पर विवक्षा की गयी है । वाटे वहते सभी जीव करण अपर्याप्तक होते हैं किन्तु लब्धि की अपेक्षा पर्याप्तक होकर मरने वाले जीव वाटे वहते में भी लब्धि पर्याप्तक ही कहलाते हैं। करण का अर्थ साधन (इन्द्रियाँ) होने से इन्द्रिय पर्याप्तक को करण पर्याप्तक कहते हैं। तिर्यंच और मनुष्य के अपर्याप्तक में लब्धि और करण दोनों अपर्याप्तक हो सकते हैं। देव, नैरयिक में तो मात्र करण अपर्याप्तक ही होते हैं । पत्त - णोअपजत्तए णं पुच्छा ? २८७ do गोया ! साइए अपज्जवसिए ॥ दारं १७ ॥ ५४९ ॥ - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव कितने काल तक नोपर्याप्तकनो अपर्याप्तक अवस्था में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! नोपर्याप्तक-नोअपर्याप्तक जीव (सिद्ध भगवान्) सादि - अपर्यवसित है | ॥ सत्तरहवाँ द्वार ॥ १७॥ विवेचन - पर्याप्तक जीव जघन्य से अन्तर्मुहूर्त्त तक होता है इसके बाद अपर्याप्तक हो सकता है । उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सौ से नौ सौ सागरोपम तक होता है। इतने काल तक लब्धि पर्याप्तक की कायस्थिति संभव हो सकती है। अपर्याप्तक जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक होता है तत्पश्चात् पर्याप्तक लब्धि की प्राप्ति होती है। नो-पर्याप्तक नो- अपर्याप्तक सिद्ध हैं और वे सादि अनन्त हैं क्योंकि सिद्धत्व का कभी नाश नहीं होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy