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________________ २८६ प्रज्ञापना सूत्र स्थिति होती है तथा जब कोई प्रत्येक शरीरी जाव वहाँ से निकल कर निगोद (सूक्ष्म और बादर) में उत्कृष्ट काल अर्थात् अढाई पुद्गल परावर्तन तक रहता है तब काय अपरित की उत्कृष्ट कायस्थिति होती है। विवेचन - काय अपरित्त की कायस्थिति - प्रज्ञापना सूत्र के मूल पाठ में "वनस्पतिकाल' की बतलाई गयी है परन्तु वह लिपिप्रमाद होना संभव है क्योंकि काय अपरित्त तो मात्र निगोद (सूक्ष्म और बादर) के जीव ही होते हैं। उनकी कायस्थिति तीसरे द्वार में अढ़ाई पुद्गल परावर्तन जितनी ही बतलाई गयी है। अत: काय अपरित्त की भी उत्कृष्ट कायस्थिति अढाई पुद्गल परावर्तन जितनी ही समझनी चाहिए। इसी के आधार से यहाँ मूल पाठ में संशोधन किया गया है। संसारअपरित्ते णं पुच्छा? गोयमा! संसारअपरित्ते दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए। .. भावार्थ-प्रश्न- हे भगवन् ! संसार-अपरित्त कितने काल तक संसार-अपरित्त-पर्याय में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! संसार-अपरित्त दो प्रकार के कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं - १. अनादि- : अपर्यवसित और २. अनादि-सपर्यवसित। विवेचन - संसार अपरित्त दो प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अनन्त - जो किसी भी काल में संसार से मुक्त नहीं होते हैं वे अनादि अनन्त हैं जैसे अभवी जीव २. अनादि सान्त - जो संसार का का अन्त करेंगे, वे अनादि सान्त संसार अपरित्त कहलाते हैं। णोपरित्ते-णोअपरित्ते णं पच्छा? गोयमा! साइए अपज्जवसिए॥दारं १६॥॥५४८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नोपरित्त-नोअपरित्त कितने काल तक लगातार नोपरित्त-नोअपरित्तपर्याय में रहता है? उत्तर - हे गौतम! नोपरित्त-नोअपरित्त सादि-अपर्यवसित है। ॥ सोलहवाँ द्वार॥१६॥ विवेचन - नोपरित्त - नोअपरित्त सिद्ध हैं और वे आदि अनन्त काल तक होते हैं। १७. पर्याप्त द्वार पजत्तए णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवम सयपुहुत्तं साइरेगे। भावार्थ-प्रश्न-हे भगवन्! पर्याप्तक जीव कितने काल तक निरन्तर पर्याप्तक-अवस्था में रहता है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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