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________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - परित्त द्वार २८५ संसारपरित्ते णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवड्डे पोग्गल परियट्ट देसूणं। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! संसारपरित्त जीव कितने काल तक संसारपरित्त पर्याय में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक, यावत् देशोन अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन संसारपरित्त पर्याय में रहता है। विवेचन - संसार परित्त जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक होता है इसके बाद वह अन्तकृत केवली होकर मुक्ति प्राप्त कर लेता है। संसार परित्त की उत्कृष्ट कायस्थिति अनंतकाल की होती है इसके बाद वह अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। अपरित्ते णं पुच्छा? गोयमा! अपरित्ते दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - काय अपरित्ते य संसार अपरित्ते य। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अपरित जीव कितने काल तक अपरित्त पर्याय में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! अपरित्त दो प्रकार के कहे गये हैं, वह इस प्रकार है - १. काय-अपरित्त और २. संसार-अपरित्त। विवेचन - अपरित्त दो प्रकार के कहे गये हैं - १. काय अपरित्त - जो अनन्तकायिक जीव (सूक्ष्म और बादर निगोद में रहे हुए जीव) हैं वे काय अपरित्त कहलाते हैं २. संसार अपरित्त - जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके संसार को परिमित नहीं किया है वह संसार अपरित्त कहलाता है। अर्थात् जिनकी कायस्थिति अर्ध पुद्गल परावर्तन से अधिक होती है ऐसे भव्य और अभव्य जीव संसार अपरित्त कहलाते हैं। ___ कायअपरित्ते णं पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अड्डाइज्जा पोग्गलपरियट्टा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! काय-अपरित्त निरन्तर कितने काल तक काय-अपरित्त-पर्याय से युक्त रहता है। उत्तर - हे गौतम! काय अपरित्त जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनंत काल तक यावत् अढाई पुद्गल परावर्तन तक काय-अपरित्त-पर्याय से युक्त रहता है। विवेचन - जब कोई जीव प्रत्येक शरीरी से निकल कर निगोद में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रह कर पुनः प्रत्येक शरीरी में उत्पन्न हो जाता है तब काय अपरित्त की जघन्य अन्तर्मुहूर्त की Jain Education Intemational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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