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________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - आहारक द्वार २७९ । विवेचन - छद्मस्थ आहारक की जघन्य कायस्थिति दो समय कम क्षुल्लक भव ( दो सौ छप्पन आवलिका प्रमाण) की कही गयी है। एक क्षुल्लक भव २५६ आवलिका का होता है। कोई भी जीव २५६ आवलिका से पहले पर्याप्त नहीं होता तथा अन्तर्मुहूर्त के बाद अपर्याप्त नहीं रहता है। चार समय एवं पांच समय के विग्रह वाले जीव बहुत थोड़े होने से यहाँ उनकी विवक्षा नहीं करके आहारक की स्थिति जघन्य एक क्षुल्लक भव में दो समय न्यून बताई है। उत्कृष्ट स्थिति बादर काल की बताई है। इतने समय तक जीव ऋजुगंति से समोहया मरण से काल करता रहे तो • वह आहारक बना रह सकता है। . केवलिआहारए णं भंते! केवलिआहारए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं देसूणं पुव्वकोडिं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! केवली-आहारक कितने काल तक केवली-आहारक के रूप में रहता है? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन कोटिपूर्व तक केवली आहारक निरन्तर केवली-आहारक रूप में रहता है। अणाहारए णं भंते! अणाहारए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! अणाहारए दुविहे पण्णत्ते। तंजहा - छउमत्थ अणाहारए य केवलि अणाहारए य। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अनाहारक जीव, अनाहारक रूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! अनाहारक दो प्रकार के होते हैं, यथा १. छद्मस्थ-अनाहारक और २. केवली अनाहारक। . . . छउमत्थ अणाहारए णं भंते! पुच्छा? गोयमा! जहण्णेणं एगं समयं, उक्कोसेणं दो समया। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! छद्मस्थ-अनाहारक, छद्मस्थ-अनाहारक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रहता है? .. उत्तर - हे गौतम! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो समय तक छद्मस्थ-अनाहारक रूप में रहता है। विवेचन - छद्मस्थ अनाहारक की उत्कृष्ट दो समय की कायस्थिति तीन समय वाली विग्रह गति की अपेक्षा कही गयी है। यह काय स्थिति बहुलता की अपेक्षा से समझना चाहिए। अर्थात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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