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________________ : २७८ प्रज्ञापना सूत्र ÖHÖHÖN ÖNÖKÖKŐKÖHÖN ÖHỘ 2000 उत्तर - हे गौतम! साकारोपयोग युक्त जीव निरन्तर जघन्य से और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक साकारोपयोग से युक्त बना रहता है। अणागारोवउत्ते वि एवं चेव ॥ दारं १३ ॥ ॥ ५४५ ॥ भावार्थ - अनाकारोपयोग युक्त जीव भी इसी प्रकार जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त तक अनाकारोपयोग युक्त रूप में बना रहता है। ॥ तेरहवाँ द्वार ॥ १३ ॥ विवेचन संसारी जीवों को साकार और अनाकार दोनों उपयोग होते हैं और उनकी स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त्त की होती है । केवलियों का उपयोग एक समय का होता है उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है । केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों उपयोग क्षायिक भाव में होने के कारण इनकी कायस्थिति आगमकारों को 'साइया अपज्जवसिया' ही इष्ट है। अतः इनका अन्तर संभव ही नहीं है। जीव के उपयोग का वैसा ही स्वभाव होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन का उपयोग एक एक समय के क्रम से होता है । छद्मस्थों के उपयोग क्षायोपशमिक भाव में होने कारण एवं उपयोगों की अनेक विधता होने से इनकी स्थिति सादि सान्त होने से आगमकारों ने यहाँ पर दोनों उपयोगों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त की ही बताई है। १४. आहारक द्वार आहारए णं भंते! पुच्छा ? गोयमा! आहारए दुविहे पण्णत्ते । तंजहा- छउमत्थआहारए य केवलिआहारए य। भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! आहारक जीव लगातार कितने कालं तक आहारक रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! आहारक जीव दो प्रकार के कहे हैं, यथा छद्मस्थ आहारक और केवली आहारक । Jain Education International छउमत्थाहारए णं भंते! छउमत्थाहारएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहणेणं खुड्डाग भवग्गहणं दुसमयऊणं, उक्कोसेणं असंखिज्ज कालं, असंखिजाओ उस्सप्पिणि ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अंगुलस्स असंखिज्जइभागं । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! छद्मस्थ आहारक कितने काल तक छद्मस्थ आहारक के रूप में रहता है ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य दो समय कम क्षुद्रभव ग्रहण जितने काल और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक लगातार छद्मस्थ आहारक रूप में रहता है। अर्थात्- - काल से असंख्यात उत्सर्पिणी - अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र से अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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