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________________ अठारहवाँ कायस्थिति पद - वेद द्वार २५९ oooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooooo o ooooooo o oo ६. वेद द्वार सवेदए णं भंते! सवेदए त्ति कालओ केवच्चिर होइ? गोयमा! सवेदए तिविहे पण्णत्ते। तंजहा - अणाइए वा अपजवसिए, अणाइए वा सपजवसिए, साइए वा सपजवसिए। तत्थ णं जे से साइए सपजवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अवडं पोग्गलपरियट्ट देसूणं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सवेदी जीव कितने काल तक सवेदी रूप में रहता है? उत्तर - हे गौतम! सवेदक जीव तीन प्रकार के कहे गए हैं। यथा - १. अनादि-अनन्त, २. अनादि-सान्त और ३. सादि-सान्त। उनमें से जो सादि-सान्त है, वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट से अनन्तकाल तक निरन्तर सवेदकपर्याय से युक्त रहता है। अर्थात् उत्कृष्टतः काल से अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक तथा क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्ध (अर्ध) पुद्गलपरावर्तन तक जीव सवेदी रहता है। . विवेचन - वेद सहित जीव सवेदी (सवेदक) कहलाता है। सवेदक तीन प्रकार के कहे गये हैं - १. अनादि अनन्त - जिसकी आदि भी नहीं और अन्त भी नहीं, जो जीव कभी भी उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी प्राप्त नहीं करेगा। वह अनादि अनंत कहलाता है उसके वेद के उदय का कभी विच्छेद नहीं होगा। २. अनादि सान्त - जिसकी आदि न हो पर अन्त हो। जो जीव कभी न कभी उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी प्राप्त करेगा किन्तु जिसने अभी तक कभी भी श्रेणी प्राप्त नहीं की है वह अनादि सान्त सवेदक है। ऐसे जीव के उपशम श्रेणी या क्षपक श्रेणी के प्राप्त होने पर वेदोदय का विच्छेद हो जाता है ३. सादि सान्त - जिसकी आदि भी है और अन्त भी है, जो उपशम श्रेणी को प्राप्त कर वहाँ वेद के उदय से रहित होकर पुन: उपशम श्रेणी से गिरते हुए वेदोदय वाला होता है वह सादि सान्त है। सादि सान्त सवेदक की कायस्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त कही गयी है वह इस प्रकार है - जब कोई जीव उपशम श्रेणी को प्राप्त कर तीनों प्रकार के वेदों को उपशांत कर वेदोदय रहित होकर पुनः श्रेणि से गिरते सवेदक अवस्था को प्राप्त कर जल्दी से उपशम श्रेणी को (कर्म ग्रंथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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