SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ प्रज्ञापना सूत्र एवं वइजोगी वि। भावार्थ - इसी प्रकार वचनयोगी का वचनयोगी रूप में रहने का काल समझना चाहिए। विवेचन - वचन योगी जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त तक वचन योगी अवस्था में रहता है। जीव प्रथम समय में काययोग से भाषा योग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, दूसरे समय में उन्हें भाषा रूप में परिणत करके त्यागता है और तीसरे समय में रुक जाता है या मरण को प्राप्त हो जाता है इसलिए एक समय वचन योग वाला होता है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक भाषा द्रव्यों को निरंतर ग्रहण करने और छोड़ने के बाद रुक जाता है क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है अत: . वचन योगी की उत्कृष्ट कायस्थिति अंतर्मुहूर्त होती है। कायजोगी णं भंते! कायजोगि०? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वणस्सइकालो। ' भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! काययोगी, काययोगी के रूप में कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक वह काययोगीपर्याय में रहता है। विवेचन - काययोगी की जघन्य कायस्थिति अंतर्मुहूर्त है। बेइन्द्रिय आदि जीवों को वचन योग भी होता है और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को मनोयोग भी होता है किन्तु जब वचन योग और मनयोग. होता है तब काय योग की प्रधानता नहीं होती। अतः वह सादि सान्त होने से जघन्य अंतर्मुहूर्त तक काय योग में रहता है। उत्कृष्ट स्थिति वनस्पतिकाल पर्यंत होती है। वनस्पतिकाल का परिमाण पूर्व में बताया जा चुका है। वनस्पतिकायिक जीवों में केवल काययोग ही पाया जाता है, वचन योग और मन योग नहीं होता है। इसलिए शेष योगों का अभाव होने से कायस्थिति पर्यन्त निरन्तर काय योग ही रहता है। अजोगी णं भंते! अजोगित्ति कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा! साइए अपजवसिए॥ दारं ५॥५३७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! अयोगी, अयोगीपर्याय में कितने काल तक रहता है? उत्तर - हे गौतम! अयोगी, अयोगीपर्याय में सादि-अपर्यवसित (अनन्त) कालं तक है। ॥ पंचमद्वार ॥ ५॥ विवेचन - योग रहित जीव अयोगी कहलाते हैं। ऐसे अयोगी (सिद्ध) जीव सादि अनन्त हैं अतः अयोगी की कायस्थिति सादि अनन्त काल कही गई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy