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________________ - सत्तरहवाँ लेश्या पद-चतुर्थ उद्देशक - रस द्वार २१७ गोयमा! से जहाणामए चंदप्पभा इ वा मणसिला इ वा वरसीधू इ वा वरवारुणी इ वा पत्तासवे इ वा पुष्फासवे इ वा फलासवे इ वा चोयासवे इ वा आसवे इ वा महू इ वा मेरए इ वा कविसाणए इ वा खजूरसारए इ वा मुहियासारए इ वा सुपक्कखोयरसे इ वा अपिट्ठणिट्ठिया इ वा जंबुफलकालिया इ वा वरप्पसण्णा इ वा आसला मंसला पेसला ईसिं ओढवलंबिणी ईसिं वोच्छेयकडुई ईसिं तंबच्छिकरणी उक्कोसमयपत्ता वण्णेणं उववेया जाव फासेणं आसायणिज्जा वीसायणिज्जा पीणणिजा विंहणिजा दीवणिजा दप्पणिज्जा मयणिजा, सव्विंदियगायपल्हायणिजा। भवेयारूवा? गोयमा! णो इणढे समढे, पम्हलेस्सा णं एत्तो इट्टतरिया चेव जाव मणामतरिया चेव आसाएणं पण्णत्ता॥५१९॥ कठिन शब्दार्थ - आसायणिज्जा - आस्वादन करने योग्य, वीसायणिज्जा - विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य, पीणणिज्जा - प्रीणनीय-तृप्तिकारक, विहणिजा - बृंहणीय-वृद्धिकारक, दीवणिज्जा - उद्दीपन करने वाली, दप्पणिज्जा - दर्पनीय-दर्पजनक, मयणिजा - मदजनक, सव्विंदिय गाय पल्हायणिजा - सभी इन्द्रियों और गात्र (शरीर) को आह्लादजनक। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन ! पद्म लेश्या का आस्वाद कैसा कहा गया है ? उत्तर - हे गौतम ! जैसे कोई चन्द्रप्रभा नामक मदिरा, मणिशलाका मद्य, श्रेष्ठ सीधु नामक मद्य हो, उत्तम वारुणी (मदिरा) हो, धातकी के पत्तों से बनाया हुआ आसव हो, पुष्पों का आसव हो, फलों का आसव हो, चोय नाम के सुगन्धित द्रव्य से बना आसव हो, अथवा सामान्य आसव हो, मधु (मद्य) हो, मैरेयक या कापिशायन नामक मद्य हो, खजूर का सार हो, द्राक्षा सार हो, सुपक्व इक्षुरस हो, अथवा शास्त्रोक्त अष्टविध पिष्टों द्वारा तैयार की हुए वस्तु हो, या जामुन के फल की तरह काली स्वादिष्ट वस्तु हो, या उत्तम प्रसन्ना नाम की मदिरा हो, जो अत्यन्त स्वादिष्ट हो, प्रचुर रस से युक्त हो, रमणीय हो अतएव आस्वादयुक्त होने से झटपट ओठों से लगा ली जाए अर्थात् जो मुखमाधुर्यकारिणी हो तथा जो पीने के पश्चात् (इलायची लौंग आदि द्रव्यों के मिश्रण के कारण) कुछ तीखी-सी हो, जो आँखों को ताम्रवर्ण की बना दे तथा उत्कृष्ट मादक हो, जो प्रशस्त वर्ण, गन्ध और स्पर्श से युक्त हो, जो आस्वादन करने योग्य हो, विशेष रूप से आस्वादन करने योग्य हो, जो तृप्तिकारक हो, वृद्धिकारक हो, उद्दीपन करने वाली, दर्पजनक, मदजनक तथा सभी इन्द्रियों और शरीर (गात्र) को आह्लादजनक हो, इनके रस के समान पद्म लेश्या का आस्वाद होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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