SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तरहवाँ लेश्या पद-द्वितीय उद्देशक - विविध लेश्या वाले चौबीस...... १८५ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में चारों निकायों के देवों का अल्पबहुत्व कहा गया है। जो इस प्रकार हैसबसे थोड़े शुक्ल लेश्या वाले वैमानिक देव हैं उनसे पद्म लेश्या वाले असंख्यात गुणा हैं उनसे तेजो लेश्या वाले वैमानिक देव असंख्यात गुणा हैं इसका कारण पूर्वोक्तानुसार है। उनसे तेजोलेश्या वाले भवनवासी देव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अंगुल प्रमाण क्षेत्र के प्रदेशों के प्रथम वर्गमूल के संख्यातवें भाग समान में जितने प्रदेश होते हैं उतने घनीकृत लोक की सात रन्जु लम्बी एक प्रदेश चौड़ाई वाली श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं उतने दसों निकाय के भवनपति देव देवियों का समुदाय है। उससे कुछ न्यून बतीसवें भाग जितने भवनपति देव हैं। ये सौधर्म ईशान देवों से असंख्यात गुण अधिक होने के कारण तेजो लेश्या वाले भवनपति देव असंख्यात गुणा हैं। उनसे कापोत लेश्या वाले भवनपति देव असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अल्प ऋद्धि वाले बहुत से देवों को कापोत लेश्या संभव है। उनसे नील लेश्या वाले भवनपति देव विशेषाधिक हैं। इसका कारण पूर्व में बताया गया है उनसे कृष्ण लेश्या वाले भवनपति देव विशेषाधिक हैं। उनसे तेजो लेश्या वाले वाणव्यंतर देव असंख्यात गुणा हैं, क्योंकि घनीकृत लोक की सात रज्जु लम्बी और सात रज्जु चौड़ाई वाले एक प्रतर में संख्यात कोटाकोटी योजन प्रमाण सूची रूप खण्ड जितने होते हैं उतने सब भेद मिलाकर वाणव्यन्तर देव देवी हैं। उनसे कुछ कम बत्तीसवें भाग जितने वाणव्यंतर देव हैं जो भवनपति देवों की अपेक्षा बहुत है अतः कृष्ण लेश्या वाले भवनपति. देवों से तेजो लेश्या वाले वाणव्यंतर देव असंख्यात गुणा हैं। उनसे कापोत लेश्या वाले.. वाणव्यंतर असंख्यात गुणा हैं क्योंकि अल्प ऋद्धि वालों में भी कापोत लेश्या होती है। उनसे नील, लेश्या वाले वाणव्यंतर विशेषाधिक हैं। उनसे भी कृष्ण लेश्या वाले वाणव्यंतर विशेषाधिक हैं। उनसे तेजो लेश्या वाले ज्योतिषी देव संख्यात गुणा हैं क्योंकि एक प्रवर के २५६ अंगुल के वर्ग रूप प्रतर खण्ड जितने होते हैं उतने सब मिलाकर ज्योतिषी देव देवियों का समुदाय है, उनसे कुछ कम बत्तीसवें भाग जितने ज्योतिषी देव हैं। इसलिये कृष्ण लेश्या वाले वाणव्यंतरों से ज्योतिषी देव संख्यात गुणा घंटित हो सकते हैं, किन्तु असंख्यात गुणा घटित नहीं होते क्योंकि प्रतर खण्ड रूप प्रमाण संख्यात कोटाकोटी योजन की अपेक्षा २५६ अंगुल संख्यातवें भाग है। - एएसि णं भंते! भवणवासिणीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कण्हलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कयरे कयरेहितो अप्या वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा! सव्वत्थोवाओ देवीओ वेमाणिणीओ तेउलेस्साओ, भवणवासिणीओ तेउलेस्साओ असंखिजगुणाओ, काउलेस्साओ असंखिजगुणाओ, णीललेस्साओ विसेसाहियाओ, कण्हलेस्साओ विसेसाहियाओ, तेउलेस्साओ वाणमंतरीओ देवीओ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy