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________________ १६२ . प्रज्ञापना सूत्र संयतासंयत के तीन क्रियाएं होती हैं - आरंभिकी, पारिग्रहिकी और माया प्रत्यया। असंयत के मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया के सिवाय चार क्रियाएं होती हैं। ___ यहाँ पर मनुष्यों में क्रिया की पृच्छा में "जहा ओहियाणं" कहा है परन्तु कृष्ण लेशी मनुष्यों में छठे गुणस्थान तक ही होने से सभी प्रमन ही होते हैं अतः संयतों के भेदों में प्रमत्त अप्रमत्त भेद नहीं किया गया है। जैसा कि - भगवती सूत्र शतक एक उद्देशक दो में लेश्या के वर्णन में इस प्रकार का पाठ दिया है "मणुस्सा किरियासु सराग वियराग पमत्ताऽपमत्ता न भाणियव्या" ऐसे ही यहाँ पर भी समझ लेना चाहिए। जोइसिय-वेमाणिया आइल्लियासु तिसु लेस्सासु ण पुच्छिति। .. भावार्थ - ज्योतिष और वैमानिक देवों के विषय में प्रारम्भ की तीन लेश्याओं (कृष्ण, नील और कापोत लेश्या) को लेकर प्रश्न नहीं करना चाहिए। एवं जहा किण्हलेस्सा विचारिया तहाणीललेस्सा वि विचारेयव्वा। कठिन शब्दार्थ - विचारिया - विचार किया है, विचारेयव्वा - विचार कर लेना चाहिये। भावार्थ - इसी प्रकार जैसे कृष्णलेश्या वालों चौबीस दण्डकवर्ती जीवों का विचार किया है, उसी प्रकार नीललेश्या वालों का भी विचार कर लेना चाहिए। काउलेस्सा णेरइएहितो आरब्भ जाव वाणमंतरा, णवरं काउलेस्सा जेरइया वेयणाए जहा ओहिया। भावार्थ - कापोतलेश्या वाले नैरयिकों से प्रारम्भ करके दस भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियतिर्यंच, मनुष्य एवं वाणव्यन्तरों तक का सप्तद्वारादि विषयक कथन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। विशेषता यह है कि कापोतलेश्या वाले नैरयिकों का वेदना के विषय में प्रतिपादन समुच्चय (औधिक) नैरयिकों के समान जानना चाहिए। विवेचन - कापोत लेश्या वाले नैरयिक दो प्रकार के कहे गये हैं - १. संज्ञीभूत २. असंज्ञीभूत आदि सारा वर्णन समझना चाहिये। असंज्ञी जीव भी पहली नरक पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं जहाँ कि कापोत लेश्या पाई जाती है। अतः कापोत लेश्या वाले नैरयिकों का वेदना विषयक कथन समुच्चय नैरयिकों के समान समझना चाहिये। तेउलेस्साणं भंते! असुरकुमाराणं ताओ चेव पुच्छाओ। गोयमा! जहेंव ओहिया तहेव, णवरं वेयणाए जहा जोइसिया।। भावार्थ - हे भगवन् ! तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों के समान आहारादि सप्तद्वार विषयक प्रश्न उसी प्रकार हैं, इनका क्या समाधान है ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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