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सत्तरहवाँ लेश्या पद- प्रथम उद्देशक सलेशी चौबीस दण्डकों में सप्त द्वार
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कण्हलेस्सा णं भंते! णेरड्या सव्वे समाहारा- पुच्छा ?
गोयमा ! जहा ओहिया, णवरं णेरइया वेयणाएं माइमिच्छदिट्ठी उववण्णगा य अमाइ सम्महिट्ठी उववण्णगा य भाणियव्वा, सेसं तहेव जहा ओहियाणं ।
भावार्थ - प्रश्न हे भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाले सभी नैरयिक समान आहार वाले, समान शरीर वाले और समान उच्छ्वास- निःश्वास वाले होते हैं। इत्यादि प्रश्न करना चाहिए।
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उत्तर - हे गौतम! जैसे सामान्य ( औधिक) नैरयिकों का आहारादि विषयकं कथन किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्या वाले नैरयिकों का कथन भी समझ लेना चाहिए । विशेषता इतनी हैं कि वेदना की अपेक्षा नैरयिक मायी- मिथ्यादृष्टिट-उपपन्नक और अमायी- सम्यग्दृष्टि - उपपन्नक, ये दो प्रकार के कहने चाहिए। शेष कर्म, वर्ण, लेश्या, क्रिया और आयुष्य आदि के विषय में समुच्चय नैरयिकों के विषय में जैसा कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए।
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विवेचन जैसे सामान्य नैरयिकों के विषय में कथन किया गया हैं उसी प्रकार कृष्ण लेश्या युक्त नैरयिकों के विषय में कथन करना चाहिये किन्तु वेदना की अपेक्षा असंज्ञीभूत और संज्ञीभूत भेदों के स्थान पर मायी - मिध्यादृष्टि उपपन्नक और अमायी- सम्यग्दृष्टि उपपन्नक कहना चाहिये क्योंकि असंज्ञी जीव प्रथम नरक में कृष्णलेश्या वाले नैरयिक नहीं होते तथा पांचवीं आदि जिस नरक पृथ्वी में कृष्णलेश्या पाई जाती है उसमें असंज्ञी जीव उत्पन्न नहीं होते अतः कृष्ण लेश्या वाले नैरयिकों में संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत ये भेद नहीं होते। इनमें मायी मिध्यादृष्टि नैरयिक महावेदना वाले होते हैं और अमायी सम्यग्दृष्टि नैरयिक अपेक्षाकृत अल्पवेदना वाले होते हैं।
असुरकुमारा जाव वाणमंतरा एए जहा ओहिया, णवरं मणुस्साणं किरियाहिं विसेसो- जाव तत्थ णं जे ते सम्मदिट्ठी ते तिविहा पण्णत्ता । तंजेहा संजया असंजया संजयासंजया य, जहा ओहियाणं ।
भावार्थ - कृष्णलेश्यायुक्त असुरकुमारों से लेकर नागकुमार आदि भवनपति, पृथ्वीकायिकादि एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तिर्यंचपंचेन्द्रिय, मनुष्य और वाणव्यन्तर के आहारादि सप्त द्वारों के विषय में उसी प्रकार कहना चाहिए, जैसा समुच्चय असुरकुमारादि के विषय में कहा गया है। मनुष्यों में समुच्चय से क्रियाओं की अपेक्षा कुछ विशेषता है। जिस प्रकार समुच्चय मनुष्यों का कथन किया गया है, उसी प्रकार कृष्णलेश्यायुक्त मनुष्यों का कथन भी यावत्-" उनमें से जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं- संयत, असंयत और संयतासंयत ।" इत्यादि सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए।
• विवेचन - कृष्णलेश्या वाले मनुष्य में क्रिया की अपेक्षा तीन भेद कहना चाहिए - १. संयत २. संयता - संयत और ३. असंयत । संयत के दो क्रियाएं होती हैं - आरम्भिकी और माया प्रत्यया ।
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