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सत्तरहवाँ लेश्या पद-प्रथम उद्देशक - सलेशी चौबीस दण्डकों में सप्त द्वार .
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उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार समुच्चय असुरकुमारों का आहारादि विषयक कथन किया गया है, उसी प्रकार तेजोलेश्या वाले असुरकुमारों की आहारादि सम्बन्धी वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए। विशेषता यह है कि वेदना के विषय में जैसे ज्योतिषियों की वक्तव्यता कही है, उसी प्रकार यहाँ भी कहनी चाहिए।
पुढवि आउ वणस्सइ पंचेंदिय तिरिक्ख मणुस्सा जहा ओहिया तहेव भाणियव्वा, णवरं मणूसा किरियाहिं जे संजया ते पमत्ता य अपमत्ता य भाणियव्वा, सरागा वीयरागा णत्थि।
भावार्थ - तेजोलेश्या वाले पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रियतिर्यंचों और मनुष्यों का कथन उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार औधिक सूत्रों में किया गया है। विशेषता यह है कि क्रियाओं की अपेक्षा से तेजोलेश्या वाले मनुष्यों के विषय में कहना चाहिए कि जो संयत हैं, वे प्रमत्त और अप्रमत्त दो प्रकार के हैं तथा सरागसंयत और वीतरागसंयत ये दो भेद तेजोलेश्या वाले मनुष्यों में नहीं होते हैं। ..
वाणमंतरा तेउलेस्साए जहा असुरकुमारा,
भावार्थ - तेजोलेश्या की अपेक्षा से वाणव्यन्तरों का कथन असुरकुमारों के समान समझना चाहिए।
एवं जोइसिय वेमाणिया वि, सेसं तं चेव।
भावार्थ - इसी प्रकार तेजोलेश्या विशिष्ट ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में भी पूर्ववत् कहना चाहिए। शेष आहारादि पदों के विषय में पूर्वोक्त असुरकुमारों के समान ही समझना चाहिए।
विवेचन - ज्योतिषी और वैमानिक में वेदना द्वार इस तरह कहना-ज्योतिषी और वैमानिक के मायी मिथ्यादृष्टि और अमायी सम्यग्दृष्टि के भेद से दो-दो भेद हैं। मायी मिथ्यादृष्टि ज्योतिषी और वैमानिक के साता वेदनीय की अपेक्षा अल्प वेदना है और अमायी सम्यग्दृष्टि के साता वेदनीय की अपेक्षा महावेदना है।
एवं पम्हलेस्सा वि भाणियव्वा, णवरं जेसिं अत्थि। सुक्कलेस्सा वि तहेव जेसिं अस्थि, सव्वं तहेव जहा ओहियाणं गमओ, णवरं पम्हलेस्स-सुक्कलेस्साओ पंचेंदिय तिरिक्ख जोणिय मणूस वेमाणियाणं चेव, ण सेसाणं ति॥ ४८५॥ . भावार्थ - इसी तरह पद्मलेश्या वालों के लिये भी आहारादि के विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जिन जीवों में पद्मलेश्या होती है, उन्हीं में उसका कथन करना चाहिए। शुक्ललेश्या
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