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________________ सत्तरहवाँ लेश्या. पद-प्रथम उद्देशक - वाणव्यंतर आदि देवों में सप्त द्वार तिर्यंच पंचेन्द्रिय के समान मनुष्य में भी सास्वादन सम्यग् दृष्टि में पांचों क्रियाएं होती हैं। शेष आयुष्य का कथन उसी प्रकार समझ लेना चाहिए, जैसा नैरयिकों का कथन किया गया है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में मनुष्य में आहार आदि सात द्वारों की प्ररूपणा की गयी है। सामान्यतया महाशरीर वाले मनुष्य बहुत से पुद्गलों का आहार करते हैं, बहुत से पुद्गलों को परिणत करते हैं तथा बहुत से पुद्गलों को उच्छ्वास रूप में ग्रहण करते हैं और नि:श्वास रूप में छोड़ते हैं किन्तु महाशरीर वाले देवकुरु आदि युगलिक मनुष्य कदाचित् ही कवलाहार करते हैं क्योंकि उनका आहार 'अट्ठमभत्तस्स आहारो' - अष्टम भक्त से होता है अर्थात् वे तीन-तीन दिन छोड़ कर आहार करते । वे कभी कभी ही श्वासोच्छ्वास लेते हैं क्योंकि वे अत्यंत सुखी होते हैं अतः उनका श्वासोच्छ्वास कभी-कभी होता है । अल्प शरीर वाले मनुष्य बार-बार थोड़ा-थोड़ा आहार करते हैं जैसे कि छोटे बच्चे बार-बार थोड़ा-थोड़ा आहार करते देखे जाते हैं, अल्पशरीर वाले सम्मूच्छिम मनुष्यों में सतत आहार संभव है और उनमें दुःख की बहुलता होने से वे बार-बार श्वासोच्छ्वास लेते हैं। अतः मनुष्यों में समान आहार आदि नहीं होता है। जो मनुष्य पूर्वोत्पन्न होते हैं उनमें तरुणता आदि कारण शुद्ध वर्ण आदि होते हैं। जिनके कषायों का उपशम या क्षय नहीं हुआ है किन्तु जो संयत (संयमी ) हैं वे सरागसंयत कहलाते हैं किन्तु जिनके कषायों का सर्वथा उपशम या क्षय हो चुका है वे वीतराग संयत कहलाते हैं । वीतरागता के कारण वीतराग संयत में आरंभिकी आदि कोई क्रिया नहीं होती है। सराग संयत में जो अप्रमत्त संयत होते हैं उनमें कषाय के सर्वथा क्षीण नहीं होने से एक मात्र माया प्रत्यया क्रिया ही होती है। प्रमाद के कारण आरंभ आदि में प्रवृत्ति होने से प्रमत्त संयत को आरंभिकी और मायाप्रत्यया क्रिया होती है। वाणव्यंतर आदि देवों में सप्त द्वार Jain Education International १५९ वाणमंतराणं जहा असुरकुमाराणं । भावार्थ - जैसे असुरकुमारों की आहारादि की वक्तव्यता कही गयी है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर देवों की आहारादि संबंधी वक्तव्यता कहनी चाहिए। एवं जोइसिय वेमाणियाण वि, णवरं ते वेयणाए दुविहा पण्णत्ता । तंजहा - माइ मिच्छदिट्ठी उववण्णगा य अमाइ सम्मदिट्ठी उववण्णगा य । तत्थ णं जे ते माइमिच्छदिट्ठी उववण्णगा ते णं अप्पवेयणतरागा, तत्थ णं जे ते अमाइ सम्मदिट्ठी उववण्णगा - ते णं महावेयण तरागा, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ० । सेसं तहेव ॥ ४८४ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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