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________________ १५८ प्रज्ञापना सूत्र संजयासंजया तेसिं तिण्णि किरियाओ कज्जंति, तंजहा आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया । तत्थ णं जे ते असंजया तेसिं चत्तारि किरियाओ कज्जंति, तंजहा आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपच्चक्खाण किरिया । तत्थ णं जे ते मिच्छदिट्ठी जे सम्मामिच्छद्दिट्टी तेसिं णियइयाओ पंच किरियाओ कज्जंति, तंजहा- आरंभिया परिग्गहिया मायावत्तिया अपच्चक्खाणकिरिया मिच्छादंसणवत्तिया, सेसं जहा णेरइयाणं ॥ ४८३ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! क्या सभी मनुष्य समान आहार वाले होते हैं ? उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है । Jain Education International - प्रश्न-हे भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि सब मनुष्य समान आहार वाले नहीं हैं ? उत्तर - हे गौतम! मनुष्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार हैं- महाशरीर वाले और अल्प (छोटे) शरीर वाले। उनमें जो महाशरीर वाले हैं, वे बहुत-से पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् बहुत से पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं तथा कदाचित् आहार करते हैं, यावत् कदाचित् निःश्वास लेते हैं । उनमें जो अल्प शरीर वाले हैं, वे अल्पतर पुद्गलों का आहार करते हैं, यावत् अल्पतर पुद्गलों का निःश्वास लेते हैं, बार-बार आहार लेते हैं, यावत् बार-बार निःश्वास लेते हैं । इस कारण हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि सभी मनुष्य समान आहार वाले नहीं हैं। शेष सब वर्णन नैरयिकों के अनुसार समझ लेना चाहिए। किन्तु क्रियाओं की अपेक्षा से नैरयिकों से कुछ विशेषता है । वह इस प्रकार हैं मनुष्य तीन प्रकार के कहे गए हैं, यथा- सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि । इनमें जो सम्यग्दृष्टि हैं, वे तीन प्रकार के कहे गए हैं, जैसे कि संयत, असंयत और संयतासंयत । जो संयत हैं वेदो प्रकार के कहे हैं - सरागसंयत और वीतरागसंयत । इनमें जो वीतरागसंयत हैं, वे अक्रिय (क्रियारहित) होते हैं। उनमें जो सरागसंयत होते हैं, वे दो प्रकार के कहे गए हैं, यथा- प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत । इनमें जो अप्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें एक माया प्रत्यया क्रिया ही होती है । जो प्रमत्तसंयत होते हैं, उनमें दो क्रियाएं होती हैं १. आरम्भिकी और २. मायाप्रत्यया । उनमें जो संयतासंयत होते हैं, उनमें तीन क्रियाएं पाई जाती हैं, यथा- १. आरम्भिकी २. पारिग्रहिकी और ३.. मायाप्रत्यया। उनमें जो असंयत हैं, उनमें चार क्रियाएं पाई जाती हैं, यथा १. आरम्भिकी २. पारिग्रहिकी ३. मायाप्रत्यया और ४. अप्रत्याख्यानक्रिया किन्तु उनमें जो मिथ्यादृष्टि हैं, अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं तथा जो सास्वादन सम्यग्दृष्टि हैं उनमें निश्चित रूप से पांचों क्रियाएं होती हैं, यथा - १. आरम्भिकी २. पारिग्रहिकी ३. मायाप्रत्यया ४. अप्रत्याख्यान क्रिया और ५. मिथ्यादर्शनप्रत्यया । - ÖHÖN ÖVŐHŐHŐHŐLŐHÖỘ - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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