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________________ सोलहवां प्रयोग पद - गति प्रपात के भेद-प्रभेद १२९ । 'उ कठिन शब्दार्थ - उवउजिऊण - उपयोग लगा करके। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों की कितने प्रकार की प्रयोग गति कही गई हैं ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों की प्रयोग गति ग्यारह प्रकार की कही गई है, वह इस प्रकार हैसत्यमनःप्रयोगगति इत्यादि। इस प्रकार उपयोग करके असुरकुमारों से लेकर वैमानिक पर्यन्त जिसकी जितने प्रकार की गति है, उसकी उतने प्रकार की गति कहनी चाहिए। जीवाणं भंते! सच्चमणप्पओगगई जाव कम्मगसरीर कायप्पओगगई? - गोयमा! जीवा सव्वे वि ताव होजा सच्चमणप्पओग गई वि, एवं तं चेव पुव्ववणियं भाणियव्वं, भंगा तहेव जाव वेमाणियाणं, से तं पओग गई १॥४६५॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जीव क्या सत्यमनःप्रयोग गति वाले हैं, अथवा यावत् कार्मण शरीर काय प्रयोगगति वाले हैं ? उत्तर - हे गौतम! जीव सभी सत्यमनः प्रयोग गति वाले भी होते हैं यावत् कार्मण शरीर काय प्रयोगी भी होते हैं इत्यादि पूर्ववत् कह देना चाहिए। उसी प्रकार पूर्ववत् नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक कहना चाहिए। यह प्रयोग गति की प्ररूपणा हुई। से किं तं तत गई? तत गई जे णं जे गामं वा जाव सण्णिवेसं वा संपट्ठिए असंपत्ते अंतरापहे वट्टइ, सेत्तं तत गई २॥४६६॥ कठिन शब्दार्थ-संपढ़िए-प्रस्थान किया हुआ, असंपत्ते-पहुँचा नहीं है, अंतरापहे-बीच मार्ग में। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वह तत गति किस प्रकार की कही गयी है? .. उत्तर - हे गौतम! तत गति वह है, जिसके द्वारा जिस ग्राम यावत् सन्निवेश के लिए प्रस्थान किया हुआ व्यक्ति अभी पहुँचा नहीं, बीच मार्ग में ही है। यह तत गति का स्वरूप है। विवेचन - तत का अर्थ विस्तीर्ण है। विस्तीर्ण जो गति है वह तत गति है। कोई व्यक्ति किसी गांव या नगर के लिए रवाना हुआ। उसने अपना स्थान छोड़ दिया है और गंतव्य स्थान पर नहीं पहुंचा है, रास्ते में चल रहा है। उसके एक-एक कदम चलने पर देशान्तर प्राप्ति रूप गति हो रही है। यही तत गति कही गयी है। से किं तं बंधणछेयण गई? बंधणछेयणगई जे णं जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ, सेत्तं बंधणछेयण मई ३॥४६७॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वह बन्धन छेदन गति क्या है? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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