SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! णेरइया सव्वे वि ताव होजा सच्चमणप्पओगी वि जाव वेउब्वियमीसासरीर कायप्पओगी वि, अहवेगे य कम्मासरीर कायप्पओगी य १, अहवेगे य कम्मासरीर. कायप्पओगिणो य २। एवं असुरकुमारा वि जाव थणियकुमाराणं। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक सत्यमन:प्रयोगी होते हैं, अथवा यावत् कार्मण शरीर काय प्रयोगी होते हैं? उत्तर - हे गौतम! सभी नैरयिक सत्यमनःप्रयोगी भी होते हैं, यावत् वैक्रिय मिश्र शरीर काय . प्रयोगी भी होते हैं १. अथवा कोई एक नैरयिक कार्मण शरीर काय प्रयोगी होता है २. अथवा कोई अनेक नैरयिक कार्मण शरीर काय प्रयोगी होते हैं। इसी प्रकार असुरकुमारों की भी यावत् स्तनितकुमारों की प्रयोग प्ररूपणा करनी चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों और भवनपति देवों में पाये जाने वाले तीन भंगों की प्ररूपणा की गयी है। नैरयिकों में सत्य मन प्रयोग वाले से लेकर वैक्रिय मिश्र काय प्रयोग वाले पर्यन्त दस पद (प्रयोग) सदैव बहुवचन से पाए जाते हैं। यह प्रथम भंग हुआ। शंका - वैक्रिय मिश्र शरीरकाय प्रयोग वाले हमेशा कैसे पाते हैं ? क्योंकि नरक गति का उपपात विरह काल बारह मुहूर्त का है ? समाधान - यह कथन उत्तर वैक्रिय की अपेक्षा से कहा गया है जो इस प्रकार है - यद्यपि नरक गति के उपपात का विरह काल बारह मुहूर्त का है किन्तु उस समय भी उत्तर वैक्रिय शरीर का आरंभ करने वाले संभव है और उत्तरवैक्रिय के प्रारंभ में भवधारणीय वैक्रिय से मिश्र होता है क्योंकि वैक्रिय शरीर के सामर्थ्य से उत्तर वैक्रिय का आरंभ किया जाता है। भवधारणीय शरीर के प्रवेश में भी उत्तर वैक्रिय से मिश्र होता है क्योंकि उत्तर वैक्रिय के बल से भवधारणीय शरीर में प्रवेश करता है इसलिये उत्तर वैक्रिय की अपेक्षा से भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय मिश्र का संभव होने से उस समय भी वैक्रिय मिश्र शरीर काय प्रयोग वाले नैरयिक होते हैं। कार्मण शरीर काय प्रयोग वाले नैरयिक कदाचित् एक भी नहीं होते हैं क्योंकि बारह मुहूर्त का उपपात विरहकाल होता है। जब कार्मण शरीर काय प्रयोग वाले होते हैं तब जघन्य से एक, दो और उत्कृष्ट असंख्यात होते हैं। इसलिए जब कार्मण शरीर काय प्रयोग वाला एक भी नैरयिक नहीं होता है तब प्रथम भंग, जब एक होता है तब द्वितीय भंग और जब कार्मण शरीरकाय प्रयोगी बहुत से होते है तब तृतीय भंग होता है। ___ असुरकुमार आदि दस भवनपति देवों में भी इसी प्रकार तीन भंग समझ लेने चाहिए। पुढविकाइया णं भंते! किं ओरालिय सरीर कायप्पओगी ओरालिय मीसासरीर कायप्पओगी कम्मासरीर कायप्पओगी? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy