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________________ सोलहवां प्रयोग पद - समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोग प्ररूपणा Þ0000000000000000000000000000000000000ÒÒÒÒÒÒÒÒÒÒÒI चार भंग - १. अथवा एक आहारक शरीर काय - प्रयोगी और एक आहारक मिश्र शरीर काय प्रयोगी २. अथवा एक आहारक शरीर काय प्रयोगी और बहुत-से आहारक मिश्र शरीर काय-प्रयोगी ३. अथवा बहुत-से आहारक शरीर काय प्रयोगी और एक आहारक मिश्र शरीर काय प्रयोगी ४. अथवा बहुत से आहारक शरीर कायप्रयोगी और बहुत से आहारक मिश्र शरीर काय प्रयोगी। ये समुच्चय जीवों के प्रयोग की अपेक्षा से आठ भंग हुए। इनमें प्रथम भंग को मिलाने से नौ भंग होते हैं । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में समुच्चय जीवों में प्रयोग की अपेक्षा से पाए जाने वाले आठ भंगों का निरूपण किया गया है। समुच्चय जीवों में आहारक और आहारक मिश्र को छोड़ कर शेष १३ पदों का एक भंग होता है । तात्पर्य यह है कि सदैव बहुत से जीव सत्यमन प्रयोग वाले, असत्यमन प्रयोग वाले यावत् वैक्रिय मिश्र शरीरकाय प्रयोग वाले और कार्मण शरीरकाय प्रयोग वाले भी होते हैं। नैरयिक जीव व देव सदैव उपपात के अर्न्तमुहूर्त्त पश्चात् उत्तर वैक्रिय प्रारंभ कर देते हैं इसलिए वे नैरयिक व देव सदैव वैक्रिय मिश्र शरीर काय प्रयोग वाले भी होते हैं तथा वे कार्मण शरीर काय प्रयोग वाले भी हमेशा होते हैं क्योंकि वनस्पति आदि के जीव विग्रह गति से अवान्तर गति में निरन्तर होते हैं किन्तु आहारक शरीरी कदाचित् सर्वथा नहीं पाए जाते क्योंकि उनका अन्तर उत्कृष्ट छह मास तक का संभव है। कहा भी है - - आहारगाई लोए छम्मासे जा न होंति वि कयाई । उक्कोसेण नियमा, एक्कं समयं जहणणेणं ॥ १॥ Jain Education International ११३ ताई जहणेणं इक्कं दो तिनि पंच व हवंति । उक्कोसेणं जुगवं पुहुत्तमेत्तं सहस्साणं ॥ २ ॥ अर्थात् - लोक में आहारक शरीरी जघन्य एक समय तक नहीं होते और कदाचित् उत्कृष्ट छह मास तक अवश्य नहीं होते और जब होते हैं तब जघन्य एक, दो, तीन, पांच आदि होते हैं उत्कृष्ट एक साथ सहस्र पृथक्त्व (अनेक हजार) होते हैं इसलिए जब आहारक शरीरकाय प्रयोगी और आहारक मिश्र शरीर काय प्रयोगी एक भी नहीं पाया जाता तब बहुत जीवों की अपेक्षा से तेरह पदों वाला प्रथम भंग होता है क्योंकि उक्त तेरह पदों (प्रयोगों) वाले जीव सदैव बहुत पाये जाते हैं। शेष आठ भंग इस प्रकार होते हैं - १. आहारक प्रयोग वाला एक २. आहारक प्रयोग वाले बहुत ३. आहारक मिश्र प्रयोग, वाला एक ४. आहारक मिश्र प्रयोग वाले बहुत । ५. आहारक प्रयोग वाला एक आहारक मिश्र प्रयोग वाला एक ६. आहारक प्रयोग वाला एक आहारक मिश्र प्रयोग वाले बहुत ७. आहारक के प्रयोग वाले बहुत आहारक मिश्र प्रयोग वाला एक ८. आहारक प्रयोग वाले बहुत आहारक मिश्र प्रयोग वाले बहुत । रइयाणं भंते! किं सच्चमणप्पओगी जाव किं कम्मासरीर कायप्पओगी ११? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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