SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - सोलहवां प्रयोग पद - समुच्चय जीवों में विभाग से प्रयोग प्ररूपणा ११५ गोयमा! पुढविकाइया ओरालियसरीर कायप्पओगी वि ओरालिय मीससरीर कायप्पओगी वि कम्मासरीर कायप्पओगी वि, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं। णवरं वाउंक्काइया वेउव्वियसरीर कायप्पओगी वि वेउब्विय मीसासरीर कायप्पओगी वि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव क्या औदारिक शरीर काय-प्रयोगी हैं, औदारिक मिश्र शरीर काय-प्रयोगी हैं अथवा कार्मण शरीर काय-प्रयोगी हैं? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव औदारिक शरीर काय-प्रयोगी भी होते हैं, औदारिक मिश्र शरीर काय-प्रयोगी भी होते हैं और कार्मण शरीर काय-प्रयोगी भी होते हैं। इसी प्रकार अप्कायिक जीवों से लेकर वनस्पतिकायिकों तक प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता कह देनी चाहिए। विशेषता यह है कि वायुकायिक वैक्रिय शरीर काय-प्रयोगी भी हैं और वैक्रिय मिश्र शरीर काय-प्रयोगी भी हैं। बेइंदिया णं भंते! किं ओरालिय सरीर कायप्पओगी जाव कम्मासरीर । कायप्पओगी? . गोयमा! बेइंदिया सव्वे वि ताव होजा असच्चामोसवइप्पओगी वि ओरालियसरीर कायप्पओगी वि ओरालिय मीससरीर कायप्पओगी वि अहवेगे य कम्मासरीर कायप्पओगी य अहवेगे य कम्मासरीर कायप्पओगिणो य, एवं जाव चउरिदिया वि। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! बेइन्द्रिय जीव क्या औदारिक शरीर काय प्रयोगी होते हैं, अथवा यावत् कार्मण शरीर काय प्रयोगी होते हैं? : उत्तर - हे गौतम! सभी बेइन्द्रिय जीव असत्यामृषा वचन प्रयोगी भी होते हैं, औदारिक शरीर काय प्रयोगी भी होते हैं, औदारिक मिश्र शरीर काय-प्रयोगी भी होते हैं। १. अथवा कोई एक बेइन्द्रिय जीव कार्मण शरीर काय-प्रयोगी होता है २. या बहुत-से बेइन्द्रिय जीव कार्मण शरीर काय-प्रयोगी होते हैं। . तेइन्द्रियों एवं चउरिन्द्रियों की प्रयोग सम्बन्धी वक्तव्यता भी इसी प्रकार समझनी चाहिए। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में एकेन्द्रिय और तीन विकलेन्द्रिय जीवों की एकवचन बहुवचन की अपेक्षा प्रयोग संबंधी वक्तव्यता कही गई है। ___ पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पतियों में औदारिक शरीरकाय प्रयोग वाले, औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोग वाले और कार्मण शरीर काय प्रयोग वाले सदैव बहुत पाये जाते हैं। अतः प्रत्येक में तीन पदों के बहुवचन रूप एक ही भंग होता है। वायुकायिकों में औदारिक द्विक, वैक्रिय द्विक और कार्मण शरीर इन पांच पदों का बहुवचन रूप एक भंग होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004095
Book TitlePragnapana Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages412
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy