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________________ ८४ प्रज्ञापना सूत्र से एएणद्वेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-असुरकुमाराणं अणंता पजवा पण्णत्ता'। एवं जहा णेरइया, जहा असुरकुमारा तहा णागकुमारा वि जाव थणियकुमारा॥२४९॥ आभिनिबोधिकज्ञान-पर्यायों, श्रुतज्ञान-पर्यायों, अवधिज्ञान पर्यायों, मति अज्ञान पर्यायों, श्रुतअज्ञान-पर्यायों, विभंगज्ञान पर्यायों, चक्षुदर्शन पर्यायों, अचक्षुदर्शन पर्यायों और अवधिदर्शन पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित हीनाधिक है। हे गौतम! इसी कारण से ऐसा कहा जाता है कि असुरकुमारों के पर्याय अनन्त कहे गये हैं। इसी प्रकार जैसे नैरयिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं और असुरकुमारों के कहे गये हैं, उसी प्रकार नागकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों तक के अनन्त पर्याय कहने चाहिए। 'विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपतियों के अनन्तपर्यायों का निरूपण किया गया है। एक असुरकुमार दूसरे असुरकुमार से पूर्वोक्त सूत्रानुसार द्रव्य और प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना और स्थिति के पर्यायों की दृष्टि के पूर्ववत् चतुःस्थानपतित हीनाधिक हैं तथा कृष्णादिवर्ण, सुगन्ध-दुर्गन्ध, तिक्त आदि रस, कर्कश आदि स्पर्श एवं ज्ञान, अज्ञान एवं दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से पूर्ववत् षट्स्थानपतित हैं। इसलिये असुरकुमार आदि भवनपति देवों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं। पृथ्वीकायिकों के पर्याय , पुढवीकाइयाणं भंते! केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीवों के कितने पर्याय कहे गये हैं? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'पुढवीकाइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता'? गोयमा! पुढवीकाइए पुढवीकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए सिय हीणे सिय तुल्ले सिय अब्भहिए। जइ हीणे असंखिजइ भागहीणे वा संखिजइ भागहीणे वा संखिजइ गुणहीणे वा असंखिजइ गुणहीणे वा। अह अब्भहिए असंखिजइ भागअब्भहिए वा संखिजइ भागअन्भहिए वा संखिज गुणअब्भहिए वा असंखिज गुणअब्भहिए वा। . भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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