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________________ २९८ 0000 प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! चउपएंसिए णं खंधे सिय चरिमे १, णो अचरिमे २, सिय अवत्तव्वए ३ णो चरिमाई ४, णो अचरिमाई ५, णो अवत्तव्वयाई ६, णो चरिमे य अचरिमे य ७, णो चरिमे य अचरिमाइं च ८, सिय चरिमाई अचरिमे य ९, सिय चरिमाई च अचरिमाई च १०, सिय चरिमे य अवत्तव्वए य ११, सिय चरिमे य अवत्तव्वयाइं च १२, णो चरिमाइं च अवत्तव्वए य १३, णो चरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १४, णो अचरिमेय अवत्तव्वए य १५, णो अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च १६, णो अचरिमाइं च अवत्तव्वए य १७, णो अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च १८, णो चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वए य १९, णो चरिमे य अचरिमे य अवत्तव्वयाइं च २०, णो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वए य २१, णो चरिमे य अचरिमाइं च अवत्तव्वयाइं च २२, सिय चरिमाइं च अचरिमे य अवत्तव्वए य २३ । सेसा भंगा पडिसेहेयव्वा ॥ ३६१ ॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध के विषय में इन छब्बीस भंगों में से कितने . और कौनसे भंग पाये जाते हैं ? Jain Education International ........................0000000 उत्तर - हे गौतम! चतुष्प्रदेशिक स्कन्ध १. कथंचित् चरम है, २. अचरम नहीं है, ३. कथंचित् अवक्तव्य है । ४. वह न तो अनेक चरम रूप है ५. न अनेक अचरम रूप है, ६. न ही अनेक अवक्तव्य रूप है ७. न वह चरम और अचरम है ८. न एक चरम और अनेक अचरम रूप है, किन्तु ९. कथञ्चित् अनेक चरम रूप और एक अचरम है, १०. कथंचित् अनेक चरम रूप और अनेक अचरम रूप है, ११. कथंचित् एक चरम और एक अवक्तव्य है और १२. कथंचित् एक चरम और अनेक अवक्तव्य रूप है, १३. वह न अनेक चरम रूप और एक अवक्तव्य है, १४. न अनेक चरम रूप और अनेक अवक्तव्य रूप है, १५. न एक अचरम और एक अवक्तव्य है १६. न एक अचरम और अनेक अवक्तव्य रूप है १७. न अनेक अचरम रूप और एक अवक्तव्य है १८. न अनेक अचरम रूप और न अनेक अवक्तव्य रूप है और १९. न ही वह एक चरम, एक अचरम और एक अवक्तव्य है २०. न एक चरम, एक अचरम और अनेक अवक्तव्य रूप है, २१. न एक चरम, अनेक अचरम रूप और एक अवक्तव्य है २२. न एक चरम, अनेक अचरम रूप और अनेक अवक्तव्य रूप है किन्तु २३. कथंचित् अनेक चरम रूप, एक अचरम और एक अवक्तव्य है। शेष तीन भंगों का निषेध कर देना चाहिए। अभिप्राय यह है कि चार प्रदेशी स्कन्ध में पहला, तीसरा, नववां, दसवां, ग्यारहवां, बारहवां और तेईसवां, ये सात भंग पाये जाते हैं शेष भंग शून्य हैं। पंचपसि णं भंते! खंधे किं चरिमे, अचरिमे जाव अवत्तव्वयाइं ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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