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________________ सातवाँ उच्छ्वास पद - वैमानिक देवों में श्वासोच्छ्वास विरहकाल २५३ 000000000000000000000000000000000000000000000000000०....... 0000000000000000000 तक जघन्य उत्कृष्ट में एक एक पक्ष बढ़ाना चाहिए। इस तरह नवमें ग्रैवेयक के देव जघन्य ३० पक्षों से और उत्कृष्ट ३१ पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। चार अनुत्तर विमान के देव जघन्य ३१ पक्षों से और उत्कृष्ट ३३ पक्षों से और सर्वार्थसिद्ध के देव जघन्य और उत्कृष्ट बिना ३३ पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। देवों में जिनमें जितने सागरोपम की स्थिति है वे उतने ही पक्ष से श्वासोच्छ्वास लेते हैं यानी उनका उतने ही पक्ष का श्वासोच्छ्वास का विरह काल है। देवों की जितने पल्योपम की स्थिति होती है वे उतने ही प्रत्येक मुहूर्त से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। दस हजार वर्ष की स्थिति वाले देव सात स्तोक से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। देवों में जो जितनी अधिक आयुष्य वाला है वह उतना अधिक सुखी होता है और सुखी जीवों का उत्तरोत्तर श्वासोच्छ्वास का विरहकाल अधिक होता है क्योंकि उच्छ्वास निःश्वास क्रिया दुःख रूप है इसलिए ज्यों-ज्यों आयुष्य में सागरोपम की वृद्धि होती है त्यों-त्यों उच्छ्वास निःश्वास क्रिया के विरहकाल में भी पक्षों की वृद्धि होती है। पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंचपंचेन्द्रिय और मनुष्य का श्वासोच्छ्वास लेने का समय नियत नहीं है अतः उनके श्वासोच्छ्वास का विरह काल भी अनियत ही समझना चाहिए। औदारिक दण्डकों के श्वासोच्छ्वास विमात्रा (अनिश्चित समय) से तथा वैक्रिय दण्डकों (नारक, देवों) के श्वासोच्छ्वास निश्चित समय से बताये गये हैं। एक मुहूर्त में ३७७३ श्वासोच्छ्वास बताये हैं। वे सभी मनुष्यों के समान रूप से नहीं समझना चाहिये, किन्तु अनुयोग द्वार सूत्र आदि में मुहूर्त आदि का माप बताने के लिए तीसरे चौथे आरे के जन्मे हुए जवान एवं पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति के श्वासोच्छ्वास से काल गिनती की गई है। ऐसे व्यक्ति के ३७७३ श्वास (हृदय की घड़कन-नाड़ी का स्पन्दन) का एक मुहूर्त होता है। ऐसे ३० मुहूर्तों का एक अहोरात्र होता है। अतः सभी के लिए मुहूर्त आदि के श्वासोच्छ्वास का निश्चित नहीं समझना चाहिये। प्राणायाम आदि से श्वासोच्छ्वास कम ज्यादा होने में आगमिक बाधा नहीं है परन्तु आयुष्य तो कम ज्यादा नहीं होता है। श्वासोच्छ्वास लब्धि नाम कर्म से प्राप्त होती है और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति से वह लब्धि व्याप्त होती है। श्वासोच्छ्वास नाम कर्म का व्यापार करने में श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति सहयोगी बनती है। ॥पण्णवणाए भगवईए सत्तमं ऊसासपयं समत्तं॥ ॥ प्रज्ञापना भगवती सूत्र का सातवां उच्छ्वास पद समाप्त॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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