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________________ २५२ .......................0000000000000000000००००००००००००००००००००००००००००००0000000000000 प्रज्ञापना सूत्र भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! उपरितन-उपरितन (ऊपर की त्रिक के ऊपर के) ग्रैवेयक देव कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं ? उत्तर - हे गौतम! उपरितन-उपरितन ग्रैवेयक देव जघन्य तीस पक्षों से और उत्कृष्ट इकतीस पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। विजय-वेजयंत-जयंत-अपराजिय विमाणेसु देवा णं भंते! केवइकालस्स जाव णीससंति वा? गोयमा! जहण्णेणं एक्कतीसाए पक्खाणं, उक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव णीससंति वा। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित विमानों के देव कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं ? उत्तर - हे गौतम! विजय, वैजयंत, जयन्त और अपराजित विमानों के देव जघन्य इकत्तीस पक्षों से और उत्कृष्ट तेतीस पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। सव्वट्ठ सिद्धग देवा णं भंते! केवइकालस्स जाव णीससंति वा? " गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव णीससंति वा॥ ३३६॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध विमान के देव कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं? उत्तर - हे गौतम! सर्वार्थसिद्ध विमान के देव अजघन्य-अनुत्कृष्ट तेतीस पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोडते हैं। विवेचन - पहले देवलोक के देव जघन्य प्रत्येक मुहूर्त से और उत्कृष्ट दो पक्षों से और दूसरे देवलोक के देव जघन्य कुछ अधिक प्रत्येक मुहूर्त से उत्कृष्ट कुछ अधिक दो पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। तीसरे देवलोक के देव जघन्य दो पक्षों से और उत्कृष्ट सात पक्षों से और चौथे देवलोक के देव जघन्य कुछ अधिक दो पक्षों से और उत्कृष्ट कुछ अधिक सात पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। पांचवें देवलोक के देव जघन्य सात पक्षों से और उत्कृष्ट दस पक्षों से, छठे देवलोक के देव जघन्य दस पक्षों से और उत्कृष्ट १४ पक्षों से, सातवें देवलोक के देव जघन्य १४ पक्षों से और उत्कृष्ट १७ पक्षों से और आठवें देवलोक के. देव जघन्य १७ पक्षों से और उत्कृष्ट १८ पक्षों से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। नवें देवलोक से बारहवें देवलोक तक तथा पहले ग्रैवेयक से नवें ग्रैवेयक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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