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________________ सातवाँ उच्छ्वास पद - असुरकुमार आदि देवों में श्वासोच्छ्वास विरह काल प्रश्न - स्तोक किसको कहते हैं ? उत्तर - सतपाणाणि से थोवे, सतथोवा से लवे । लवाणं सत्तहत्तर एस मुहुत्ते वियाहिए। तिन्नि सहस्सा सत्त य सयाइं तेवत्तरिं च उच्छासा । एस मुहुत्तो भणिओ, सव्वेहिं अनंतणाणीहिं ॥ १॥ अर्थ - सात प्राण का एक स्तोक होता है, सात स्तोक का एक लव होता है, सित्तहत्तर लव का एक मुहूर्त होता है। एक मुहूर्त में ३७७३ श्वासोच्छ्वास होते हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार काल का अत्यन्त सूक्ष्म भाग समय कहलाता है। असंख्यात समय की एक आवलिका होती है। संख्यात आवलिका का एक उच्छ्वास होता है और संख्यात आवलिका का एक निःश्वास होता है। एक उच्छ्वास और एक निःश्वास मिलकर एक प्राण होता है। सात प्राण का एक स्तोक होता है और सात स्तोक का एक लव होता है। सित्तहत्तर लव या ३७७३ श्वासोच्छ्वास का एक मुहूर्त होता है। इस तरह आगे बढ़ते बढ़ते एक सौ चौराणु (१९४) अंक की संख्या को शीर्ष प्रहेलिका कहते हैं। चौपन्न (५४) अंक लिखकर उनके ऊपर १४० बिन्दियाँ लगाने से शीर्ष प्रहेलिका संख्या का प्रमाण आता है। यहाँ तक का काल गणित का विषय माना गया है। इसके आगे भी काल का परिमाण बतलाया गया है परन्तु वह गणित का विषय नहीं है, किन्तु उपमा का विषय है। (अनुयोगद्वार सूत्र कालानुपूर्वी अधिकार तथा भगवती सूत्र शतक छह उद्देशक सात तथा जैन सिद्धान्त बोल संग्रह बीकानेर के सातवें भाग में इसका वर्णन है। विशेष जिज्ञासुओं को उन-उन स्थलों पर देखना चाहिए।) णागकुमारा णं भंते! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा? गोयमा ! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स, आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा एवं जाव थणियकुमाराणं ॥ ३३० ॥ भावार्थ- प्रश्न - हे भगवन्! नागकुमार कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं ? उत्तर - हे गौतम! नागकुमार जघन्य सात स्तोक से उत्कृष्ट मुहूर्त्त पृथक्त्व से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमार तक समझना चाहिए। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में असुरकुमार आदि देवों के श्वासोच्छ्वास के विरह का वर्णन किया गया है । यहाँ देवों में जिसकी जितने सागरोपम की स्थिति होती है उनको उतने पक्ष जितना श्वासोच्छ्वास क्रिया का 'विरहकाल' होता है। असुरकुमारों की उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक Jain Education International - २४३ ..................... For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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