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प्रज्ञापना सूत्र
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सागरोपम की है क्योंकि "चमरबलिसारमहियं" चमर की एक सागरोपम. और बलीन्द्र की कुछ अधिक एक सागरोपम की स्थिति है ऐसा शास्त्र वचन है। अत: वे कुछ अधिक एक पक्ष से श्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। ___असुरकुमार जाति के देव जघन्य सात स्तोक उत्कृष्ट एक पक्ष से कुछ अधिक समय से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। भवनपति के शेष नौ निकाय के देव जघन्य सात स्तोक से उत्कृष्ट प्रत्येक मुहूर्त से श्वासोच्छ्वास लेते हैं। अर्थात् दो मुहूर्त से लेकर नौ मुहूर्त तक की संख्या को शास्त्रीय भाषा में "मुहत्तपुहुत्त" कहते हैं। थोकड़ा वाले 'पुहुत्त' के स्थान पर 'प्रत्येक' शब्द का प्रयोग करते हैं। जिसका अर्थ भी यही है कि दो से लेकर नौ तक की संख्या को 'प्रत्येक' शब्द से कहते हैं। . .
पूथ्वीकायिक आदि में श्वासोच्छ्वास विरह काल पुढवीकाइया णं भंते! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा . णीससंति वा?
गोयमा! वेमायाए आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा। एवं जाव मणुस्सा।
वाणमंतरा जहा णागकुमारा॥३३१॥ कठिन शब्दार्थ - वेमायाए - विमात्रा से। .
भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं ?
उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव विमात्रा-अनियमित रूप से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक समझना चाहिए। नागकुमारों के समान वाणव्यंन्तर देवों का श्वासोच्छ्वास कह देना चाहिए। __ विवेचन - पृथ्वीकायिक विमात्रा से-विषम रूप से-अनियमित रूप से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं अर्थात् उनकी श्वासोच्छ्वास क्रिया का विरहकाल अनियमित होता है।
पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय, तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्य का श्वासोच्छ्वास लेना नियमित नहीं है अतः उनके श्वासोच्छ्वास का विरह काल भी अनियमित ही जानना चाहिए।
वाणव्यंतर देव जघन्य सात स्तोक से और उत्कृष्ट मुहूर्त पृथक्त्व से श्वासोच्छ्वास लेते हैं और छोडते हैं।
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