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________________ २४२ प्रज्ञापना सूत्र कठिन शब्दार्थ - आणमंति - ऊपर श्वास लेना, पाणमंति - नीचा श्वास छोड़ना, ऊससंति - ऊपर श्वांस लेना, णीससंति - नीचा श्वास छोड़ना, सययं - सतत, संतयामेव - सततमेव-निरन्तर। भावार्थ-प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव कितने काल से उच्छ्वास लेते हैं और श्वास छोड़ते हैं ? उत्तर-हे गौतम! नैरयिक जीव सतत और निरन्तर उच्छ्वास लेते हैं और निरन्तर श्वास छोड़ते हैं। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है कि नैरयिक जीव सतत-निरंतर श्वांस लेते हैं और निरन्तर श्वास छोड़ते हैं क्योंकि नैरयिक जीव अत्यंत दुःखी होते हैं और दुःखी जीव निरन्तर उच्छ्वास निःश्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। आचार्यों ने उनकी निरन्तर श्वासोच्छ्वास लेने की क्रिया को लुहार की धमनी से उपमा दी है। . . आगम में आणमंति वा, पाणमंति वा; उससंति वा, णीससंति वा' पाठ है। टीकाकार.के अनुसार 'आणमंति पाणमंति' क्रियाओं का अर्थ स्पष्ट करने के लिए ऊससंति णीससंति' क्रियाएँ दी हैं और इनका अर्थ ऊपर श्वास लेना और नीचा श्वास छोड़ना यानी श्वास लेना और श्वास छोड़ना है। टीकाकार ने इन चारों का अलग-अलग अर्थ भी दिया है। तदनुसार 'आणमंति पाणमंति' का अर्थ श्वास निःश्वास की आभ्यन्तर क्रिया है और 'ऊससंति णीससंति' का अर्थ श्वास नि:श्वास की बाह्य क्रिया है। हृदय का स्पन्दन होना आभ्यन्तर श्वास है और नाड़ी का स्पन्दन बाह्य श्वास है। असुरकुमार आदि देवों में श्वासोच्छ्वास विरह काल असुरकुमारा णं भंते! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा? गोयमा! जहण्णेणं सत्तण्हं थोवाणं, उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, णीससंति वा। कठिन शब्दार्थ - थोवाणं - स्तोक, साइरेगस्स - सातिरेक, पक्खस्स - पक्ष का। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! असुरकुमार कितने काल से उच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं ? उत्तर - हे गौतम! असुरकुमार जघन्य सात स्तोक और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक पक्ष अर्थात् पन्द्रह दिनों से उच्छ्वास लेते हैं और छोड़ते हैं। विवेचन - प्रश्न - श्वासोच्छ्वास का क्या परिमाण है ? उत्तर - हट्ठस्सऽनवगल्लस्स णिरुवकिट्ठस्स जंतुणो। ___एगे ऊसासणीसासे, एस पाण त्ति वुच्चइ॥१॥ अर्थात् - हृष्ट पुष्ट तथा रोग रहित मनुष्य का एक उच्छ्वास और एक निःश्वास मिलकर एक श्वासोच्छ्वास कहलाता है। दोनों को मिलाकर एक प्राण भी कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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