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सत्तमं ऊसासपयं
सातवाँ उच्छ्वास पद उक्खेवो (उत्क्षेप-उत्थानिका)- इस सातवें पद का नाम "उस्सासपयं" (उच्छ्वास पद) है। इसमें चौबीस दण्डक के समस्त संसारी जीवों के श्वासोच्छ्वास तथा उनके विरह काल का वर्णन किया गया है। जीवन धारण करने के लिए प्राणी को श्वासोच्छ्वास लेने की आवश्यकता होती है। चाहे वह मुनि हो, चक्रवर्ती हो अथवा किसी भी प्रकार का देव हो, नारक हो अथवा एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी जाति का प्राणी हो उसे सांस लेना ही पड़ता है इसलिये श्वासोच्छ्वास रूप प्राण का अत्यन्त महत्त्व है और वह जीव तत्त्व से सम्बन्धित है। इस कारण शास्त्रकार ने इस पद में प्रत्येक प्रकार के जीव का श्वासोच्छ्वास और उसके विरह काल की प्ररूपणा की है।
समस्त संसारी जीवों के उच्छ्वास-नि:श्वास के विरहकाल की प्ररूपणा से एक बात स्पष्ट होती है वह यह है कि जो जीव जितने अधिक दुःखी होते हैं उन जीवों की श्वासोच्छ्वास क्रिया उतनी ही अधिक और शीघ्र चलती है और अत्यन्त दुःखी जीवों के तो यह क्रिया सतत अविरहित अर्थात् निरन्तर चला करती है। जो जीव जितने-जितने अधिक, अधिकतर और अधिकतम सुखी होते हैं उनकी श्वासोच्छ्वास क्रिया उत्तरोत्तर देर से चलती है अर्थात् उनका श्वासोच्छ्वास और विरह काल अधिक, अधिकतर और अधिकतम होता है क्योंकि श्वासोच्छ्वास क्रिया अपने आप में दुःख रूप होती है। यह बात अपने अनुभव से भी सिद्ध है और शास्त्र भी इस बात का समर्थन करते हैं। ___ छठे पद में जीवों के उपपात विरह आदि का वर्णन किया गया है। इस सातवें पद में नैरयिक आदि रूप में उत्पन्न हुए और श्वासोच्छ्वास पर्याप्तिक से पर्याप्त नैरयिक आदि जीवों की उच्छ्वास निःश्वास क्रिया का विरह काल और अविरह काल का वर्णन किया गया है। इसका प्रथम सूत्र इस प्रकार हैं -
नैरयिकों में श्वासोच्छ्वास काल णेरइया णं भंते! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा?
.गोयमा! सययं संतयामेव आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीससंति वा ॥३२९॥
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