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छठा व्युत्क्रांति पद - परभविकायुष्य द्वार
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आयुष्य बीच में नहीं टूटता है। किन किन जीवों का आयुष्य निरुपकर्म और अनपवर्तनीय होता है उनका कथन तत्त्वार्थ सूत्र के दूसरे अध्याय के अन्तिम सूत्र में इस प्रकार किया गया है -
ओपपातिक चरम देहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः॥५२॥
अर्थ - औपपातिक (उपपात से जन्म लेने वाले-नारक और देव) चरम शरीरी, उत्तम पुरुष और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले जीव ये सब निरुपकर्म एवं अनपवर्तनीय आयु वाले ही होते हैं। चरम शरीरी का अर्थ है - उसी भव में मोक्ष जाने वाले। उत्तम पुरुष का अर्थ है तीर्थङ्कर चक्रवर्ती बलदेव वासुदेव ये ५४ उत्तम पुरुष कहलाते हैं। असंख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कुछ मनुष्य और कुछ तिर्यंच ही होते हैं। यथा-तीस अकर्म भूमि, छप्पन अन्तरद्वीप और कर्म भूमि में उत्पन्न युगलिक ही होते हैं। स्थलचर और खेचर तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव ही युगलिक होते हैं। जलचर, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प युगलिक नहीं होते हैं। ये अकर्मभूमियों आदि में भी होते हैं परन्तु वहाँ युगलिक के रूप में नहीं होते हैं।
प्रश्न - अपवर्तनीय आयुष्य में क्या बंधा हुआ आयुष्य घट जाता है?
उत्तर - बन्धा हुआ आयुष्य घटता नहीं है किन्तु ठाणाङ्ग सूत्र के सातवें ठाणे में बताए हुए अग्नि, शस्त्र आदि सात प्रकार के उपघातों में से कोई उपघात अथवा अन्य इसी प्रकार का उपघात उपस्थित होने पर अर्थात् दुर्घटना घटने पर शेष आयु को खींच कर उसी समय भोग लेता है यथा - कल्पना से कोई दस हाथ की लम्बी मूंज की "स्सी है उसको लम्बा करके एक मुँह जलाया अब वह धीरे-धीरे जलती हुई आगे बढ़ती है। इस प्रकार दस हाथ जलने में संभवतया दस मिनट लगे किन्तु दूसरे व्यक्ति ने उसी दस हाथ की मूंज की रस्सी को इकट्ठी करके गोल कुण्डलाकार कर दिया और अग्नि जला दी तो वह रस्सी तत्काल एक दो मिनट में जल जाती है। तो क्या उस रस्सी का कुछ अंश बच गया है? नहीं बचा, किन्तु सम्पूर्ण जल गयी अथवा दूसरा दृष्टान्त एक दीपक में रात भर चले उतना तेल डालकर एक बत्ती लगा दी, वह रात भर चलेगा और दो बत्ती लगाई तो आधी रात तक चलेगा और चार बत्ती लगा दी तो एक प्रहर ही चलेगा तथा दस बारह बत्तियाँ लगा दी तो पांच-दस मिनट ही चलता है। तो सहज ही प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या बाकी का बचा हुआ रातभर चलने वाला तैल व्यर्थ चला गया? नहीं। रातभर चलने वाले तैल को समाप्त होने का तरीका दूसरा हो गया इसलिए वह सारा तैल थोड़े समय में ही समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार अपवर्तनीय आयुष्य को भोगने का तरीका दूसरा हो जाने से थोड़े समय में ही पूरा का पूरा भोग लिया जाता है व्यर्थ नहीं जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि अनपवर्तनीय आयुष्य लम्बी. की हुई मूंज की रस्सी जलने के समान है और अपवर्तनीय आयुष्य इकट्ठी की हुई मूंज की रस्सी जलने के समान एक साथ सारा आयुष्य भोग लिया
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