SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३२ प्रज्ञापना सूत्र विवेचन - पूर्व के छह द्वारों में जिन जीवों का नरक आदि गतियों में विविध प्रकार से उपपात कहा है उन जीवों ने पूर्व भव में आयुष्य बांधा है उसके बाद ही उनका उपपात हुआ है क्योंकि आयुष्य · बंध हुए बिना उपपात नहीं होता है । अत: सातवें द्वार में किन-किन जीवों ने वर्तमान भव के आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर अगले भव का आयुष्य बांधा है। इसका क्रमशः वर्णन किया गया है। पुढवीकाइयाणं भंते! कइ भागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति ? गोयमा ! पुढवीकाइया दुविहा पण्णत्ता । तंजहा सोवक्कमाउया य रुवक्कमाया । तत्थ णं जे ते णिरुवक्कमाउया ते णियमा तिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति । तत्थ णं जे ते सोवक्कमाउया ते सिय तिभागावसेसाउंया . परभवियाउयं पकरेंति, सिय तिभाग तिभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति, सिय तिभाग विभाग विभागावसेसाउया परभवियाउयं पकरेंति । आउ - तेउ वाउ - वणस्सइ काइयाणं बेइंदिय - तेइंदिय - चउरिदियाणं वि एवं चेव ॥ ३२४ ॥ - भावार्थ- प्रश्न हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव वर्तमान आयुष्य का कितना भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्य बांधते हैं ? उत्तर - हे गौतम! पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गए हैं, वे इस प्रकार हैं - १. सोपक्रम आयु वाले और २. निरुपक्रम आयु वाले । इनमें से जो निरुपक्रम (उपक्रम रहित) आयु वाले हैं, वे नियम से आयुष्य का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव की आयु का बन्ध करते हैं तथा इनमें जो सोपक्रम (उपक्रम सहित) आयु वाले हैं, वे कदाचित् आयु का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्य बन्ध करते हैं, कदाचित् आयु के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर परभव का आयुष्य बन्ध करते हैं और कदाचित् आयु के तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर यावत् अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहने पर परभव का आयुष्य बन्ध करते हैं। क्योंकि चार गति में जाने वाले जीव का आयुष्य इस भव में ही बांध लिया जाता है। अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिकों तथा बेइन्द्रिय- तेइन्द्रिय- चउरिन्द्रियों के पारभविक - आयुष्यबन्ध का कथन भी इसी प्रकार करना चाहिए । विवेचन - आयुष्य के दो भेद होते हैं। वे इस प्रकार हैं- सोपक्रम और निरुपक्रम । तत्त्वार्थ सूत्र में आयुष्य के दो भेदों के नाम इस प्रकार दिये हैं- अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । सोपक्रम और अपवर्तनीय आयुष्य शस्त्र आदि का निमित्त पाकर बीच में ही टूट जाता है। निरुपक्रम और अनपवर्तनीय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy