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________________ प्रज्ञापना सूत्र यद्यपि मिथ्यात्व आदि कारणों से ग्रहण किये हुए तथा ज्ञानावरणीय आदि रूप में परिणत कर्म पुद्गलों का जो अवस्थान है, वह भी स्थिति कहलाती है तथापि यहाँ चार गति की न्यपदेश की हेतु "आयुष्यकर्मानुभूति" ही स्थिति शब्द का वाच्य है क्योंकि नरक गति आदि तथा पंचेन्द्रिय जाति आदि नाम कर्म के उदय के आश्रित नारकत्व आदि पर्याय कहलाती है। किन्तु यहाँ नरक आदि क्षेत्र को अप्राप्त विग्रह गति में चलता हुआ जीव नरक आयु आदि के प्रथम समय के वेदन काल से ही नारकत्व आदि कहलाने लगता है। अत: उस गति के आयुष्य कर्म की अनुभूति को ही स्थिति माना गया है। आयुष्य कर्म की अनुभूति सिर्फ संसारी जीवों को ही होती है इसलिए इस पद में संसारी जीवों की ही स्थिति का विचार किया गया है। सिद्ध भगवान् तो सादि अपर्यवस्थित (आदि सहित और अन्त रहित) होते हैं। उनके आयुष्य कर्म होता ही नहीं है। अत: उस सम्बन्धी विचार अप्राप्त है। अजीव द्रव्य के पर्यायों की स्थिति होती है किन्तु उसका इस पद में विचार नहीं किया गया है। स्थिति (आयु) का विचार यहाँ सर्वत्र जघन्य और उत्कृष्ट दो प्रकार से किया गया है तथा सर्व प्रथम जीव की उन उन सामान्य पर्यायों को लेकर समुच्चय रूप से तत्पश्चात् उनके अपर्याप्तक और पर्याप्तक इस तरह तीन भेद करके आयुष्य का विचार किया गया है। जीवों की स्थिति दो प्रकार की बतलाई गई है यथा - १. भव स्थिति और २. काय स्थिति। जीव ने उस भव में जितने आयुष्य कर्म की स्थिति बाँधी है, उसको उस भव में भोग लेना भव स्थिति कहलाती है। पृथ्वीकाय आदि का जीव मरकर फिर पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो। इस प्रकार उस काया को न छोड़ते हुए उसमें बारम्बार जन्म मरण करते रहना, काय स्थिति कहलाती है। देव मरकर वापिस देव नहीं होता है, इसी प्रकार नरक का जीव मरकर दूसरे भव में फिर नरक जीव नहीं बनता है, इसलिए देव और नैरयिक की काय स्थिति नहीं बनती है, सिर्फ तिर्यंच और मनुष्य की काय स्थिति बनती है। इस स्थिति पद में काय स्थिति का विचार नहीं किया गया है, सिर्फ भव स्थिति का विचार किया गया है। नैरयिकों की स्थिति प्रज्ञापना सूत्र के तीसरे पद में दिशा आदि की अपेक्षा से अल्पबहुत्व की संख्या का निरूपण किया गया है और इस चौथे पद में अल्पबहुत्व से निर्णीत किये हुए जीवों की जन्म से मृत्यु पर्यंत नैरयिक आदि पर्यायों की स्थिति का निरूपण किया गया है। जिसका प्रथम सूत्र इस प्रकार है - णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्साई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। अपजत्तग णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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