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________________ चौथा स्थिति पद - नैरयिकों की स्थिति ................ .......................morrotiiiiiiiiiiiiium पज्जत्तग णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहण्णेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई अंतोमुहुत्तूणाई॥२१८॥ भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिकों की कितने काल की स्थिति कही गई है? उत्तर - हे गौतम! नैरयिकों की जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्तक नैरयिकों की कितने काल की स्थिति कही गई है? ... उत्तर - हे गौतम! अपर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की कही गई है। प्रश्न - हे भगवन्! पर्याप्तक नैरयिकों की कितने काल की स्थिति कही गई है? उत्तर - हे गौतम! पर्याप्तक नैरयिकों की जघन्य अन्तर्मुहूर्त न्यून (कम) दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त न्यून तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में सामान्य रूप से नैरयिकों की स्थिति बता कर उसके बाद अपर्याप्तक और पर्याप्तक नैरयिकों की स्थिति का वर्णन किया गया है। अपर्याप्तक दो प्रकार से होते हैं - १. लब्धि से और २. करण से। नैरयिक, देव तथा असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच और मनुष्य करण से ही अपर्याप्तक होते हैं, लब्धि से नहीं क्योंकि लब्धि अपर्याप्तक की उनमें उत्पत्ति होती ही नहीं है अतः वे उत्पत्तिकाल में ही कुछ समय तक अपर्याप्तक होते हैं यानी अन्तर्मुहूर्त पर्यंत अपर्याप्तक होते हैं। शेष तिर्यंच और मनुष्य उत्पत्ति समय और लब्धि से अपर्याप्तक होते हैं यानी करण अपर्याप्तक और लब्धि अपर्याप्तक दोनों प्रकार के होते हैं। अपर्याप्तक जघन्य से और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त पर्यंत होते हैं अतः अपर्याप्तक की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु जघन्य के अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट का अन्तर्मुहूर्त असंख्यात गुणा बड़ा होता है। अपर्याप्तक काल पूर्ण होने पर शेष काल पर्याप्तक का होता है। जैसे समुच्चय नैरयिक की स्थिति जघन्य १० हजार वर्ष उत्कृष्ट ३३ सागरोपम की है। इसमें अपर्याप्तक की अन्तर्मुहूर्त की स्थिति कम कर देने पर पर्याप्तक नैरयिक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम ३३ सागरोपम की होती है। आगे भी सर्वत्र इसी प्रकार कहना चाहिये। रयणप्पभा पुढवी णेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहएणणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सागरोवमं। अपजत्तग रयणप्यभा पुढवीणेरइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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