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________________ प्रज्ञापना सूत्र तिट्ठाणवडिए, वण्ण-गंध-रस- फासपज्जवेहिं, दोहिं णाणेहिं, दोहिं अण्णाणेहिं, दोहिं दंसणेहिं छट्टाणवडिए । उक्कोसोगाहणए वि एवं चेव, णवरं तिहिं णाणेहिं, तिहिं अण्णाणेहिं तिहिं दंसणेहिं छट्ठाणवडिए । जहा उक्कोसोगाहणए तहा अजहण्णमणुक्कोसोग्गाहणए वि, णवरं ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए चउट्ठाणवडिए । भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! ऐसा किस अपेक्षा से कहा जाता कि 'जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ?' ११२ उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच, दूसरे जघन्यं अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों, दो ज्ञानों, दो अज्ञानों और दो दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है । उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का पर्याय - विषयक कथन भी इसी प्रकार कहना चाहिए, विशेषता इतनी ही है कि तीन ज्ञानों, तीन अज्ञानों और तीन दर्शनों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। जिस प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का पर्यायविषयक कथन किया गया है, उसी प्रकार अजघन्य - अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का पर्याय विषयक कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि ये अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित हैं तथा स्थिति की अपेक्षा से चतुः स्थानपतित हैं । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की विभिन्न अपेक्षाओं से पर्यायों की प्ररूपणा की गई है। जघन्य अवगाहना वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा त्रिस्थानपतित - जघन्य अवगाहना वाला तिर्यंच पंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित होता है, चतुःस्थानपतित नहीं, क्योंकि जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय तिर्यंच संख्यात वर्षों की आयु वाला ही होता है, असंख्यातवर्षों की आयु वाले के जघन्य अवगाहना नहीं होती । इसी कारण यहाँ जघन्य अवगाहनावान् तिर्यंच पंचेन्द्रिय स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित कहा गया है, जिसका स्वरूप पहले बताया जा चुका है। जघन्य अवगाहना वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय में अवधि या विभंगज्ञान नहीं - जघन्य अवगाहना वाला पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त होता है और अपर्याप्त होकर अल्पकाय वाले जीवों में उत्पन्न होता है, इसलिए उसमें अवधिज्ञान या विभंगज्ञान संभव नहीं । इस कारण से यहाँ दो ज्ञानों और दो अज्ञानों का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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