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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों के पर्याय १११ इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी बेइन्द्रिय जीवों की पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी बेइन्द्रिय का पर्यायविषयक कथन भी इसी प्रकार से करना चाहिए किन्तु वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है । इसी प्रकार श्रुतज्ञानी, मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और अचक्षुदर्शनी बेइन्द्रिय जीवों की पर्यायों के विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जहाँ ज्ञान होता है, वहाँ अज्ञान नहीं होते, जहाँ अज्ञान होता है, वहाँ ज्ञान नहीं होते। जहाँ दर्शन होता है, वहाँ ज्ञान भी हो सकते हैं और अज्ञान भी । बेइन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कई अपेक्षाओं से कहा गया है, उसी प्रकार तेइन्द्रिय के पर्यायविषय में भी कहना चाहिए। चउरिन्द्रिय जीवों की पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए । अन्तर केवल इतना है कि इनके चक्षुदर्शन अधिक है। शेष सब बातें बेइन्द्रिय की तरह हैं । विवेचन - मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी बेइन्द्रिय की और सब प्ररूपणा तो जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी के समान ही है, किन्तु विशेषता इतनी ही है कि वह स्वस्थान में भी षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। जैसे उत्कृष्ट और जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी बेइन्द्रिय का एक-एक ही पर्याय है, वैसे मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी बेइन्द्रिय का नहीं, क्योंकि उसके तो अनन्त हीनाधिक रूप पर्याय होते हैं। तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय जीवों की प्ररूपणा यथायोग्य बेइन्द्रियों की तरह समझ लेना चाहिए। प्रस्तुत सूत्रों में जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चउरिन्द्रिय के अनन्त पर्यायों की सयुक्तिक प्ररूपणा की गई है। जघन्य आदि अवगाहना वाले तिर्यंच पंचेन्द्रियों के पर्याय जंहण्णोगाहणगाणं भंते! पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अणंता पज्जवा पण्णत्ता । भावार्थ प्रश्न हे भगवन् ! जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के कितने पर्याय कहे - - गए हैं? उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवगाहना वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं । सेकेणट्टेणं भंते! एवं वुच्चइ- 'जहण्णोगाहणगाणं पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं अणता पज्जवा पण्णत्ता' ? गोयमा! जहण्णोगाहणए पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जहण्णोगाहणयस्स पंचिंदिय तिरिक्खजोणियस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए तुल्ले, ठिईए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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