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________________ १०६ प्रज्ञापना सूत्र उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य मति अज्ञानी पृथ्वीकायिक, दूसरे जघन्य मति अज्ञानी पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, किन्तु अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। मति अज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है किन्तु श्रुत अज्ञान के पर्यायों तथा अचक्षु दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट मति अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों की पर्यायों के विषय में कथन करना चाहिए। अजघन्य अनुत्कृष्ट मति अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों की पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेष यह है कि यह स्वस्थान अर्थात् मति अज्ञान की पर्यायों में भी षट्स्थानपतित है। जिस प्रकार जघन्य मति अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों की पर्यायों के विषय में कहा गया है। उसी प्रकार श्रुत अज्ञानी तथा अचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिक जीवों की पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। जिस प्रकार जघन्य, उत्कृष्ट, मध्यम; मति अज्ञानी, श्रुतअज्ञानी एवं अचक्षुदर्शनी पृथ्वीकायिक की पर्यायों के विषय में कहा गया है। उसी प्रकार अप्कायिक से लेकर यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। विवेचन - पूर्वोक्त पृथ्वीकायिक आदि में दो अज्ञान और अचक्षुदर्शन की ही प्ररूपणा की गई है क्योंकि पृथ्वीकायिक आदि में सभी मिथ्यादृष्टि होते हैं, इनमें सम्यक्त्व नहीं होता और न सम्यग्दृष्टि जीव पृथ्वीकायिकादि में उत्पन्न होता है। अतएव उनमें दो अज्ञान ही पाए जाते हैं। इसी कारण यहाँ दो अज्ञानों की ही प्ररूपणा की गई है। इसी प्रकार पृथ्वीकाय में चक्षुरिन्द्रिय का अभाव होने से चक्षुदर्शन भी नहीं होता इसलिए यहाँ केवल अचक्षुदर्शन की ही प्ररूपणा की गई है। पृथ्वीकायिकों की तरह अन्य एकेन्द्रियों का पर्याय विषयक निरूपण सूत्र में बताये अनुसार पृथ्वीकायिक सूत्र की तरह अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक जीवों के जघन्य, उत्कृष्ट एवं मध्यम, द्रव्य, प्रदेश, अवगाहना, स्थिति, वर्णादि तथा ज्ञान-अज्ञानादि की अपेक्षा से पर्यायों की यथायोग्य हीनाधिकता समझ लेनी चाहिए। जघन्य आदि अवगाहना वाले बेइन्द्रियों के पर्याय जहण्णोगाहणगाणं भंते! बेइंदियाणं केवइया पजवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य अवगाहना वाले बेइन्द्रिय जीवों की कितने पर्याय कहे गए हैं? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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