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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले बेइन्द्रियों के पर्याय १०७ उत्तर - हे गौतम! जघन्य अवगाहना वाले बेइन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ- 'जहण्णोगाहणगाणं बेइंदियाणं अणंता पजवा पण्णत्ता'? गोयमा! जहण्णोगाहणए बेइंदिए जहण्णोगाहणगस्स बेइंदियस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए तुल्ले, ठिईए तिट्ठाणवडिए, वण्ण-गंध-रसफासपज्जवेहिं दोहिं णाणेहिं दोहिं अण्णाणेहिं अचक्खुदंसण पजवेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसोगाहणए वि, णवरं णाणा णत्थि। अजहण्णमणुक्कोसोगाहणए जहा जहण्णोगाहणए, णवरं सट्टाणे ओगाहणाए चउट्ठाणवडिए। प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य अवगाहना वाले बेइन्द्रिय जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं? उत्तर - हे गौतम! एक जघन्य अवगाहना वाला बेइन्द्रिय, दूसरे जघन्य अवगाहना वाले बेइन्द्रिय जीव से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य हैं, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है तथा अवगाहना की अपेक्षा से भी तुल्य है, किन्तु स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित हैं, वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श के पर्यायों, दो ज्ञानों, दो अज्ञानों तथा अचक्षु दर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है। . इसी प्रकार उत्कृष्ट अवगाहना वाले बेइन्द्रिय जीवों का पर्यायविषयक कथन करना चाहिए। किन्तु उत्कृष्ट अवगाहना वाले में ज्ञान नहीं होता, इतना अन्तर है। अजघन्य-अनुत्कृष्ट (मध्यम) अवगाहना वाले बेइन्द्रिय जीवों की पर्यायों के विषय में जघन्य अवगाहना वाले बेइन्द्रिय जीवों की पर्यायों की तरह कहना चाहिए। विशेषता यह है कि स्वस्थान में अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है। . विवेचन - मध्यम अवगाहना वाला एक बेइन्द्रिय, दूसरे मध्यम अवगाहना वाले बेइन्द्रिय से अवगाहना की अपेक्षा से तुल्य नहीं होता, अपितु चतुःस्थानपतित होता है, क्योंकि मध्यम अवगाहना .. सब एक-सी नहीं होती, एक मध्यम अवगाहना दूसरी मध्यम अवगाहना से संख्यात भाग हीन, असंख्यात भाग हीन, संख्यात गुण हीन या असंख्यात गुण हीन तथा इसी प्रकार चारों प्रकार से अधिक भी हो सकती है। मध्यम अवगाहना अपर्याप्त अवस्था के प्रथम समय के बाद ही प्रारम्भ हो जाती है। अतएव अपर्याप्त दशा में भी उसका सद्भाव होता है। इस कारण सास्वादन सम्यक्त्व भी मध्यम अवगाहना के समय संभव है। इसी से यहाँ दो ज्ञानों का भी सद्भाव हो सकता है। जिन बेइन्द्रियों जीवों में सास्वादन सम्यक्त्व नहीं होता, उनमें दो अज्ञान होते हैं। जहण्णठिइयाणं भंते! बेइंदियाणं केवइया पजवा पण्णत्ता? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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