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________________ पांचवां विशेष पद - जघन्य आदि अवगाहना वाले पृथ्वीकायिकों के पर्याय विवेचन - जैसे जघन्य और उत्कृष्ट गुण काले वर्ण आदि का स्थान एक ही होता है, उनमें न्यूनाधिकता का संभव नहीं, उस प्रकार से मध्यम गुण कृष्णवर्ण का स्थान एक नहीं है। एक अंश वाला काला वर्ण आदि जघन्य होता है और सर्वाधिक अंशों वाला काला वर्ण आदि उत्कृष्ट कहलाता है । इन दोनों के मध्य में काले वर्ण आदि के अनन्त विकल्प होते हैं। जैसे- दो गुण काला, तीन गुण काला, चार गुण काला, दस गुण काला, संख्यात गुण काला, असंख्यात गुण काला, अनन्त गुण काला। इसी प्रकार अन्य वर्गों तथा गन्ध, रस और स्पर्शो के बारे में समझ लेना चाहिए। अतएव जघन्य गुण काले से ऊपर और उत्कृष्ट गुण काले से नीचे काले वर्ण के मध्यम पर्याय अनन्त हैं। तात्पर्य यह है कि जघन्य और उत्कृष्ट गुण वाले काले आदि वर्ण रस इत्यादि का पर्याय एक है, किन्तु मध्यम गुण काले वर्ण आदि के पर्याय अनन्त हैं। यही कारण है कि दो पृथ्वीकायिक जीव यदि मध्यम गुण काले वर्ण हों, तो भी उनमें अनन्त गुणहीनता और अधिकता हो सकती है। इसी अभिप्राय से यहाँ स्वस्थान में भी सर्वत्र षट्स्थानपतित न्यूनाधिकता बताई गई है। इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र षट्स्थानपतित समझ लेना चाहिए। जहण्णमइअण्णाणीणं भंते! पुढविकाइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता । भावार्थ - हे भगवन् ! जघन्य मति अज्ञानी पृथ्वीकायिकों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? उत्तर - हे गौतम! जघन्य मति अज्ञानी पृथ्वीकायिकों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। से केणट्टेणं भंते! एवं तुच्चइ - ' जहण्णमइअण्णाणीणं पुढविकाइयाणं अणंता - पज्जवा पण्णत्ता' ? १०५ 0000 गोयमा! जहण्णमइअण्णाणी पुढविकाइए जहण्णमइअण्णाणिस्स पुढविकाइयस्स दव्वट्टयाए तुल्ले, पएसट्टयाए तुल्ले, ओगाहणट्टयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तिट्ठाणवडिए, वण्ण-गंध-रस-फास पज्जवेहिं छट्टाणवडिए, मइअण्णाण पज्जवेहिं तुल्ले सुयअण्णाण पज्जवेहिं अचक्खुदंसण पज्जवेहिं छट्टाणवडिए । एवं उक्कोसमइअण्णाणी वि । अजहण्णमणुक्कोस मइअण्णाणी वि एवं चेव, णवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिए । एवं सुयअण्णाणी व अचक्खुदंसण पज्जवेहिं छट्टाणवडिए । एवं उक्कोस म अण्णाणी वि। अजहण्णमणुक्कोस मइअण्णाणी वि एवं चेव, णवरं सट्टाणे छट्टाणवडिए । एवं सुअण्णाणी व अचक्खुदंसणी वि एवं चेव एवं जाव वणप्फइकाइयाणं ॥ २६३ ॥ प्रश्न - हे भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि जघन्य मति अज्ञानी पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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