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________________ १०४ प्रज्ञापना सूत्र की होती है, यह बात पहले समुच्चय पृथ्वीकायिकों की वक्तव्यता के प्रसंग में कही जा चुकी है। जघन्य स्थिति वाले पृथ्वीकायिक की तरह उत्कृष्ट स्थिति वाले पृथ्वीकायिक के पर्यायों के विषय में भी समझ लेना चाहिए। जहण्णगुणकालगाणं भंते! पुढविकाइयाणं केवइया पज्जवा पण्णत्ता? गोयमा! अणंता पजवा पण्णत्ता। भावार्थ - प्रश्न - हे भगवन्! जघन्य गुण काले पृथ्वीकायिक जीवों के कितने पर्याय कहे. गये हैं? उत्तर - हे गौतम! जघन्य गुण काले पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गए हैं। ... से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'जहण्णगुणकालगाणं पुढविकाइयाणं अणंता पजवा पण्णत्ता?' गोयमा! जहण्णगुणकालए पुढविकाइए जहण्णगुणकालयस्स पुढविकाइयस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पएसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिए, ठिईए तिट्ठाणवडिए, . कालवण्ण पज्जवेहिं तुल्ले, अवसेसेहिं वण्ण-गंध-रस-फास पजवेहिं छट्ठाणवडिए, दोहिं अण्णाणेहिं अचक्खुदंसण पजवेहि य छट्ठाणवडिए। एवं उक्कोसगुणकालए . वि। अजहण्णमणुक्कोसगुणकालए वि एवं चेव, णवरं सट्टाणे छट्ठाणवडिए। एवं पंच वण्णा दो गंधा पंच रसा अट्ठ फासा भाणियव्वा। प्रश्न - हे भगवन्! किस कारण से ऐसा कहा जाता है कि 'जघन्य गुण काले पृथ्वीकायिक जीवों के अनन्त पर्याय कहे गये हैं ?' उत्तर - हे गौतम! जघन्य गुण काला एक पृथ्वीकायिक, दूसरे जघन्य गुण काले पृथ्वीकायिक से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है किन्तु अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित है, काले वर्ण के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है तथा अवशिष्ट वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है एवं दो अज्ञानों और अचक्षुदर्शन की पर्यायों से भी षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार उत्कृष्ट गुण काले पृथ्वीकायिक जीवों के पर्यायों के विषय में कथन करना चाहिए। मध्यम (अजघन्य-अनुत्कृष्ट) गुण काले पृथ्वीकायिक जीवों की पर्यायों के विषय में भी इसी प्रकार कहना चाहिए। विशेषता यह है कि वह स्वस्थान में षट्स्थानपतित है। इसी प्रकार पृथक्-पृथक् जघन्य, मध्यम और उत्कृष्टगुण वाले पांच वर्णों, दो गन्धों, पांच रसों और आठ स्पर्शों से युक्त पृथ्वीकायिकों की पर्यायों के विषय में भी पूर्वोक्त सूत्रानुसार कह देना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004094
Book TitlePragnapana Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages414
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size9 MB
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