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________________ नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास | ३५ सिगाल जातक की गाथा पर्याप्त सोच-विचार कर कार्य करने के सम्बन्ध में द्रष्टव्य है असमोविखत कम्मतं तुरताभिनिपातिनं । सानि कम्मानि पप्पेन्ति उण्हं वज्जोहितं मुखे ॥ - (जो मनुष्य बिना विचारे जल्दबाजी में काम करता है, उसके वे काम ही उसे तपाते हैं; जैसे मुंह में डाला गर्म भोजन ।) कटुवाणी बोलने के बारे में सुजाता जातक में कहा गया है वण्णेन सम्पन्ना, मञ्जुका पियदस्सना । खरवाचाविया होंति, अस्सिं लोके परम्हि च ॥2 -(सुन्दर वर्णवाला, देखने में प्रिय और कोमल होने पर भी कड़वी वाणी (रूखी वाणी) बोलने वाला न इस लोक में प्रिय होता है और न परलोक में ।) यद्यपि अधिकांश जातक कथाएं धर्म की दृष्टि से लिखी गई हैं; किन्तु व्यावहारिकता प्रधान होने के कारण कुछ ऐसी बातें भी आ गई हैं, जिन्हें अनैतिक ही कहा जायेगा। वच्छनख जातक में गृहस्थ के व्यवहार के लिए कहा गया है घरा नानीहमानस्स घरा नाभणतो मुसा । घरा नादिन्न दण्डस्स परेसं अनिकुव्वतो ॥ -(नित्य परिश्रम न करने वाले की गृहस्थी नहीं चलती। झूठ न बोलने वाले की गृहस्थी नहीं चलती। दण्डत्यागी की गृहस्थी नहीं चलती। दूसरों को न ठगते हुए की गृहस्थी नहीं चलती।) ___ यद्यपि इस गाथा को अनैतिक ही कहा जायेगा; किन्तु क्या आधुनिक युग में (और विस्तृत दष्टिकोण से प्रत्येक युग में) सामान्य गृहस्थ के व्यावहारिक जीवन में यह परिस्थितियाँ घटित नहीं होती? क्या उसे यह सबकुछ, न चाहते हुए भी, व्यवहार में करने को बाध्य नहीं होना पड़ता ? १ जातक १, पृष्ठ २४७, तुलना करिए-बिना विचारे जो करे, सो पीछे पछताय । काम बिगारै आपुनो, जग में होत हसाय ॥ २ जातक ३, पृष्ठ ७६, ३. जातक २, पृष्ठ ४१६, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004083
Book TitleJain Nitishastra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1988
Total Pages556
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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