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बौद्ध परम्परा की नीति
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बौद्ध परम्परा का प्रारम्भ तथागत गौतम बुद्ध से हुआ, जो ईसापूर्व की छठी शताब्दी में भारत-भूमि पर विचरण कर रहे थे । बोधि प्राप्त होने पर तथागत बुद्ध ने अपना धर्मोपदेश पालि भाषा में दिया । इसीलिए पालि बौद्धधर्म की प्रमुख भाषा हो गयी और बौद्धधर्म का प्रारम्भिक साहित्य पालि - साहित्य के रूप में प्रसिद्ध हुआ 1
नीतिशास्त्र का उद्गम एवं विकास | ३३
बौद्ध साहित्य के पिटक और जातक - दो प्रमुख भेद किये जा सकते हैं । जातकों में प्रमुख रूप से कहानियाँ हैं, बोधिसत्वों से सम्बन्धित आख्यायिकाएँ हैं, उनमें कथाओं के माध्यम से नीति- शिक्षा दी गई है ।
पिटक साहित्य में नीति की दृष्टि से धम्मपद महत्वपूर्ण है । उसमें से कुछ उदाहरण यहाँ दिये जा रहे हैं
यो बालो मञ्ञञ्जती बाल्यं पण्डितो वापि तेन से |
पण्डितमानी सवे बालो ति वुच्चति ॥ 2
बालो च - यदि मूर्ख अपने को मूर्ख समझे तो उतने अंश में तो वह बुद्धिमान है, असली मूर्ख तो वह है जो मूर्ख होते हुए भी अपने को बुद्धिमान समझता है |
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मूर्ख के विषय में कितनी गहरी बात कही गई है ।
असाव मलं समृट्ठितं तदुट्ठाय तमेव खादति ।
एवं अति घोन चारिनं सम्मानि नयन्ति दुग्गति ॥ 2
- ( जिस प्रकार लोहे से उत्पन्न मोर्चा (जंग) उस लोहे को ही खा जाती है, उसी प्रकार अतिचंचल मनुष्य की चंचलता उसकी दुर्गति ( दुर्दशा) कर देती है - ( दुर्गति को ले जाती है ) | )
अभिप्राय यह है कि मन, वाणी और शरीर - तीनों की चंचलता हानिकारक है, दुर्गति का कारण है ।
१ धम्मपद ६३
२ धम्मपद २४०
धम्मपद की अधिकांश नीतियाँ व्यावहारिक हैं । किन्तु एक स्थान पर आत्मपरक नीति भी मिलती है
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